
स्टेशन पर बैठा हूं, रात के 9 बजने को हैं और मेरी ट्रेन के आने का समय 10:30 का है। वेटिंग रूम के बाहर लिखा है–कार्य प्रगति पर है; या'नी अगले कुछ घंटे की जिंदगी प्लेटफार्म पर बनी सख़्त लोहे की बेंच पर बैठ कर गुजारनी है, जिनपर लोग पहले ही जमे हुए ऊँघ रहे हैं। मैं भी एक बेंच पर थोड़ी जगह बनाने की कोशिश कर रहा हूं| मैं अकेला नहीं हूँ, वहाँ मेरे बैठने के साथ ही कुछ मच्छर भी मुझसे मिलने पास आ जाते हैं और मेरे हाथों पर बैठ कर A fellow Traveller के बहाने Mr. A. G. Gardiner की याद दिला रहे हैं।
समय अपनी मंथर गति से आगे बढ़ता है और बेंच पर जमने की रस्साकसी में आधा घंटा बीत जाता है। मैं इस आधे घंटे में अम्मार इक़बाल की नज़्म सुनते हुए दो बार IRCTC के LOGO वाले Eco Friendly Cup में चाय पी चुका हूं और तीसरे की तलब ने बेचैन कर रखा है। तभी सामने एक ट्रेन आकार रुकती है; बोर्ड लगा है हावड़ा-काठगोदाम।
एक लड़की तेजी से ट्रेन से उतर कर स्टेशन के गेट की ओर भागती है और बाहर से प्लेटफॉर्म पर पहुंचे एक लड़के के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए इधर-उधर देखने लगती है; मैं उसके चेहरे की बेचैनी देखकर समझ पाता हूं कि गोण्डा ने अपने आधुनिक होने के प्रयास में अभी प्रेमियों को इतनी सहूलत नहीं दी कि वे सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के गले लग पाएं। ख़ैर...