किसी शाम, एक अंधेरे कमरे के कोने में बैठे, टेबल-लैंप जलाए, एक किताब पढ़ते हुए, सोचा था कि जीवन ने यदि यथोचित अवकाश और चेतना का सामंजस्य बरकरार रखा तो एक प्लेटफार्म बनाया जाएगा, जहां पर पूर्वजों और वर्तमान लेखकों की लिखी महत्वपूर्ण किताबों को वर्तमान पाठकों और भावी पीढ़ी तक उपयोगितानुसार वर्गीकृत कर पहुंचाया जाएगा।
विचार जब तक आकार न ले ले तब तक उसके बारे में बात करना किसी के सामने मृग मरीचिका उपस्थित करने जैसा होता है इसलिए उस विचार को मन के आंगन की उपजाऊ मिट्टी में दबा कर भूल गया। सोचा था कभी सही समय आया तो इस विचार को समाज के हिस्से सौंप साहित्यिक-ऋण चुकाऊंगा।
आज समय ने करवट बदली है, मन के आंगन में दबे बीज ने अंगड़ाई ली है। नवागत का स्वागत करने का समय है और मन के दूसरे कोने में प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत जी की कविता “यह धरती कितना देती है” की पंक्तियों का पाठ चल रहा है—
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे
भू के अँचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था तब सहसा, मैंने जो देखा
उससे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी
जो भी हों, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया, कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में
और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है!
प्लेटफार्म तो बन गया और अब इसे आपके प्रेम की आवश्यकता है। आपके सहयोग और समर्थन से आज तक जिन किताबों तक पहुंच पाया हूं या आगे पहुंचूंगा, उनके ब्यौरे इस प्लेटफार्म के माध्यम से आप तक पहुंचाता रहूंगा।
"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।
गृहाण सम्मुखो भूत्वा प्रसीद परमेश्वर॥"
के संकल्प के साथ यह यात्रा शुरू कर रहा हूं; आपका आशीर्वाद, प्रेम, सहयोग और समर्थन इस यात्रा को गतिमान, प्रासंगिक और समृद्ध बनाएगा।
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां
जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः
उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा
कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी॥
मालतीमाधवम् | भवभूति
- ऋषि द्विवेदी
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