जिस तरह प्राणियों में सहोदर होते हैं, उसी प्रकार बौद्ध और जैन धर्मों में सहोदर हैं। इनकी उत्पति का कारण और समय लगभग एक ही है। एक विशेष अंतर तीर्थंकर को लेकर उत्पन्न होता है लेकिन यदि सूक्ष्म दृष्टि का सहारा लें तो द्वितीय नगरी क्रांति और महावीर व महात्मा(थोड़े वार्षिक अंतर के साथ) एक साथ भारतीय उपमहाद्वीप के पटल पर उभरते हैं। प्रक्रियागत विभेदों का विवेचन किया जाए तो इनके आकार व विस्तार के अधिकांश लक्षण आपको उपनिषदों के सानिध्य में बुने दिखाई देंगे; उदाहरणार्थ : सांख्य दर्शन और महावीर व बुद्ध का ज्ञान प्राप्ति के बाद प्रकृति उपासक होना संबंध का एक विस्तारित पुट प्रदर्शित करता है।
ऐसे में जब दोनों धर्म साथ-साथ अपना स्वरूप–अपना सिद्धांत–अपना दर्शन पैदा कर रहे थे तो दोनों में कई तत्त्वों का एक समान होना उतना ही स्वाभाविक था जैसे जुड़वा बच्चे होने पर एक जैसी शक्ल और आदतों का होना। जैसे–
१. बौद्ध धर्म के पंचशील और जैन धर्म के पंच महाव्रत(नैतिक स्तर)
२. बौद्ध धर्म में अष्टांगिक मार्ग और जैन धर्म में त्रिरत्न(नैतिक स्तर)
३. दोनों धर्मों द्वारा कर्मकांड का विरोध, ब्राम्हण वर्चस्व को चुनौती, वेदों को नकारना, ईश्वर को नकारना, सांख्य दर्शन को आधार बनाकर अपने अनुकूल परिवर्तनों द्वारा प्रकृति की सर्वोच्चता को स्वीकारना(धार्मिक स्तर)