
मैंने सुना था जब कोई विद्वान होता है, खासकर संस्कृत भाषा का जानकार, उसके शब्द चयन में एक अद्भुत सुंदरता होती है और मेरे जीवन में इसके प्रथम उदाहरण मेरे पिताश्री स्वयं हैं। किसी विषय पर व्यवस्थित चर्चा करते समय वे अनायास ही अनेक श्लोक और शास्त्र के संदर्भों का जिक्र कर देते हैं। मेरे लिए सामान्य से लगने वाले विषय की चर्चा भी वे महान मानदंडों पर करते हैं। उनकी सामान्य जीवन की बातें भी बौद्धिक शब्द भंडार से भरी हुई होती हैं।
फिर जीवन कुछ अन्य संस्कृत के विद्वानों से मिलवाता है, जो स्वयं को विद्यार्जन हेतु स्व-प्रदेश से हरिद्वार तक खींच कर ले गए। और जब मैं उनसे हिंदू धर्म में विद्यमान दोष और उनके निवारण पर चर्चा करना चाहता हूं, हिंदू धार्मिक कर्म-कांड के विषय में जानना चाहता हूं तो वे मुझसे पूछते हैं कि क्या आपने संस्कृत पढ़ी है और जब मैं जवाब देता हूं- नहीं, तो मेरा मखौल उड़ाते हैं। मेरा तर्क पूर्ण होने से पूर्व वे अपनी आत्ममुग्ध भाषा में कहते हैं की " फेंको मत सुनो"। मेरे अंदर का युवक विचलित हो उठता है लेकिन मेरे संस्कार उसे बांध लेते हैं और उनका सम्मान करने की निष्ठा से मुझे विचलित नहीं होने देते।