Saturday, 20 January 2024

प्रेम की अपूर्णता | ऋषि द्विवेदी

 


किसी शाम संगम के तट पर बैठा
तुम्हें याद करता हुआ
एक कविता लिखूंगा,

एक कविता, जिसमें समेटूंगा तुम्हारी अनगिनत यादें
सब नादानियां, सारी लड़ाइयां, सारे अधूरे वादे;
और उसकी बुनावट में सब ख़त भी पिरो दिए जाएंगे

खोल दी जाएंगी बीती कहानियों की सारी गिरहें
जिससे आज़ाद हो जाओ तुम मेरे अंदर से
और बने एक मुक्कमल कविता।

कविता, जिसमें मैं तुम्हारा हाथ पकड़े
संगम के तट नाप लेना चाहूँ
और साहिल पर लड़खड़ा जाऊँ
गिर जाऊँ गहरे पानी में 
और तुम मुझे डूबता छोड़ लौट जाओ
अपनी कामयाब दुनिया में

कहते हैं कि प्रेम अपनी पूर्णता में 
बेरंग हो जाता है
छूटना, टूटना, बिछड़ना
और यादों में जलते रहना
उसकी अमरता हेतु आवश्यक अर्हताएँ हैं।


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