Thursday, 14 March 2019

यादों का पिटारा 1.O (याद-ए-बहराइच)



आज वर्षों बाद बचपन की तरह सवेरा हुआ; वही पक्षी, वही कलरव, वही मंद सुगंधित हवा का हौले से स्पर्श करके भाग जाना। पेड़ों से झांकता हुआ सूरज किसी पुराने बिछड़े मित्र की तरह लग रहा था, जिससे मैनें अपनी भौतिक जरूरतों की पूर्ति हेतु किनारा कर लिया है। और हाँ नदी पर भी गया था मैं, अरे हाँ वही नदी जिसकी मछलियों को स्वजनों से अधिक स्नेह करता था मैं। जब तक उंगलियों मे फंलाकर आटे की गोलियां उन्हें खिला न दूँ, भूख नही मिटती थी मेरी। वो टूटी नाव, वो झीनी पतवार, वो फिसलन भरी मिट्टी की दरारें, वो गुरगुट की छलांग एक के बाद एक सारे मंजर आंखो के सामने ऐसे आ रहे थे जैसे किसी बड़े पर्दे पर चलचित्रों का प्रदर्शन हो रहा हो।