Saturday, 20 January 2024

एक प्रेमिल सहयात्री | ऋषि द्विवेदी


स्टेशन पर बैठा हूं, रात के 9 बजने को हैं और मेरी ट्रेन के आने का समय 10:30 का है। वेटिंग रूम के बाहर लिखा है–कार्य प्रगति पर है; या'नी अगले कुछ घंटे की जिंदगी प्लेटफार्म पर बनी सख़्त लोहे की बेंच पर बैठ कर गुजारनी है, जिनपर लोग पहले ही जमे हुए ऊँघ रहे हैं। मैं भी एक बेंच पर थोड़ी जगह बनाने की कोशिश कर रहा हूं| मैं अकेला नहीं हूँ, वहाँ मेरे बैठने के साथ ही कुछ मच्छर भी मुझसे मिलने पास आ जाते हैं और मेरे हाथों पर बैठ कर A fellow Traveller के बहाने Mr. A. G. Gardiner की याद दिला रहे हैं।

समय अपनी मंथर गति से आगे बढ़ता है और बेंच पर जमने की रस्साकसी में आधा घंटा बीत जाता है। मैं इस आधे घंटे में अम्मार इक़बाल की नज़्म सुनते हुए दो बार IRCTC के LOGO वाले Eco Friendly Cup में चाय पी चुका हूं और तीसरे की तलब ने बेचैन कर रखा है। तभी सामने एक ट्रेन आकार रुकती है; बोर्ड लगा है हावड़ा-काठगोदाम।

एक लड़की तेजी से ट्रेन से उतर कर स्टेशन के गेट की ओर भागती है और बाहर से प्लेटफॉर्म पर पहुंचे एक लड़के के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए इधर-उधर देखने लगती है; मैं उसके चेहरे की बेचैनी देखकर समझ पाता हूं कि गोण्डा ने अपने आधुनिक होने के प्रयास में अभी प्रेमियों को इतनी सहूलत नहीं दी कि वे सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के गले लग पाएं। ख़ैर...

लड़की, लड़के के हाथ से बैग लेकर सीधे ट्रेन में घुस जाती है और मैं इस दृश्य में यह समझ पाता हूं कि प्रेमियों ने आधुनिक नारीवाद के स्थापित होते रूप को न केवल अपने दिलों में प्रश्रय दिया है अपितु निखारा भी है। यकीन मानिए वर्तमान भारतवर्ष का युवा दुनिया के किसी भी पुरुष से अधिक नारीवादी और वैचारिकी में  आधुनिक है, अब इसमें आप उसे स्वार्थी कह दें तो मेरा कोई दोष नहीं।

दोनों ट्रेन में चढ़ गेट के पास ही खड़े होकर बातचीत करने लगते हैं। लड़का और लड़की के बीच चल रही खींचातानी और माहौल के ऊहापोह से समझ में आ रहा है कि दोनों की मंजिल एक नहीं है। लड़का केवल लड़की से मिलने के लिए ट्रेन पर चढ़ा है और दोनों वहीं गेट के सामने गली में खड़े सेल्फी ले रहे हैं। मैं उस गेट के ठीक सामने लगी बेंच पर बैठा इस अद्भुत दृश्य का साक्षी बन रहा हूं और इस प्रेमलिप्त समर्पण को देख भावुक हुआ जाता हूं।

तभी ट्रेन के चलने का समय हो जाता है। लड़का अपना बैग ले गेट की तरफ़ बढ़ता है। लड़की उसकी बाहें पकड़ अपनी ओर खींचती है–

“एक लास्ट पिक”

लड़का कैमरे की तरफ़ देखते हुए लड़की की आंखों में देखने लगता है–दोनों मुस्कराते हैं, लेकिन इस बार लड़का संस्कारी हो उठता है और इधर-उधर देखने लगता है। लड़की के दो प्रयास व्यर्थ हो चुके हैं, वह लखनऊ जाती ट्रेन में चढ़ लखनवी हो चुकी है लेकिन लड़का, उसे तो अभी गोण्डा की धरती पर पुनः कदम रखना है।

खींचातानी और जोर-आजमाइश का दौर चल रहा है। संस्कारी लड़का किंकर्तव्यविमूढ़ सा बाहर देखता है और मेरी आंखों से उसकी आंखें मिलती हैं। मैं ढांढस वाला मजबूत इशारा करता हूं; और अगले ही पल वह गोण्डा से अधिक आधुनिक हो लड़की की बाहों में बिखर जाता है। अब लड़की मुझे देखकर धन्यवाद वाले भाव से मुस्कुरा रही है और मुझे स्वप्निल तिवारी भैया का शेर याद आ रहा है—

"गुनाह-ए-इश्क रिहा होते ही करेंगे फिर,

गवाह बनना नहीं मुखबिरी नहीं करनी"

स्टेशन की घड़ी ने 10 बजने की सूचना दे दी है और उधर उद्घोषक ने ट्रेन के 30 मिनट देरी से आने का बिगुल फूंक दिया है। इधर मैं भी अपने तलब में डूबा IRCTC वाले Eco Friendly Cup में तीसरी चाय पीने जा रहा हूं; और समय, वो तो बीत ही रहा है... #संस्मरण

~ ऋषि द्विवेदी

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