मैं अपने छत के दाएं किनारे पर लगे
‘ज़ीनिया के फूल’ वाले गमले के पास खड़ा हूं,
शाम के 7 बजने को हैं और सूरज
अंतिम पायदान पर खड़ा नारंगी हो गया है,
उसके अकेलेपन की कशिश मेरे अंदर उतर रही है
तुम्हारा होना मुझे बचा सकता था
पर तुम चली गई हो।
तुम आज दूरियों को मिटाती
खुद को विस्तार देती
मेरे लगभग करीब तक आ गई थी
तुम्हारा साथ होना सुकून भरा था
इतना की बस बैठ कर देर तक तुम्हें निहारें
लेकिन आंखें टिक ही नही पाईं
तुम्हारे गोल से चमकीले चेहरे और बोलती आंखों से लड़कर हार गईं,
तुम्हारे पास बना आवरण मुझे छलनी कर रहा था
तुम्हें अपने हिस्से करने के लिए बेताब मन
किसी और से हो रही गुफ़्तगू को देख
बिखर रहा था
तुम पास थी पर मेरी नहीं थी
एक धुंध मेरे अभिव्यक्ति को कैद कर सो गई थी
बैचनी बढ़ने पर मैं खड़ा हो जाता और
घूम कर फिर तुम्हें हारी हुई आंखों से
तकने की कोशिश करता; हार जाता।
एक साइकिल गली में तेजी से जा रही है
ढलान है, गति की वृद्धि में निरंतरता है
और साइकिल, चलना तो उसकी प्रकृति है;
तुम भी जा रही हो, एक निरंतरता में
मुझसे दूर, समय से आगे;
आज तुम्हें अपने अतीत में कैद करने से
रह जाना अखर रहा है
एक रिमाइंडर जो हमारे जीवन के इस मधुर
क्षण को कैदकर, सहेज सकता था
तुम्हें और मुझे मिला ‘हम’ बना सकता था
फर्श पर टूटा पड़ा है।
तुम फिसल रही हो, मुट्ठी में पकड़ी रेत की मानिंद
और तेजी से समय के ओट में छुपती हुई
आंखों से ओझल होती जा रही हो
अनंत समय की विदा के साथ
बिना हथेली चूमे
और मैं अपने बिखरे टुकड़ों को समेटने में व्यस्त
कुम्हलाए-थके सूरज के साथ शनैः-शनैः
बीत रहा हूं...।
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