Thursday, 2 December 2021

मेरे हिस्से की मन्नू : मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि स्वरूप

मैं मन्नू भंडारी को जितना जानता हूं, उसके केवल तीन संदर्भ बिंदु हैं —


पहला, वे मिरांडा हाउस में हिंदी विषय की प्रवक्ता रही हैं,

दूसरा, उन्होंने ‘यही सच है’ नाम की एक कहानी लिखी है,

तीसरा, उन्होंने महाभोज’ नाम का एक उपन्यास लिखा है;


जाहिर है कि उनके जीवन का वितान मेरी इस छोटी दुनिया से आकाश गुना बड़ा है।


मैंने सबसे पहले उनका उपन्यास महाभोज’ पढ़ा था। मुझे याद नहीं कि उसके पहले ग्रामीण राजनीति पर लिखा गया इतना सुंदर उपन्यास मैंने सुना भी होगा। मुझे इस उपन्यास के कथानक की बुनाई का कसाव कहीं से भी मिरांडा हाउस में पढ़ाने वाली महिला के सामर्थ्य का नहीं लगा; सभी प्लॉट ऐसे लगे जैसे मेरे ही गांव में घटित हुआ वृत्तांत हो, जिसे लिखना शहरी मध्यवर्ग में जीवनयापन कर रही स्त्री के लिए उपन्यास लिखे जाने के समय तक असंभव जैसा था।


तब मुझे अज्ञेय याद आए और उनके द्वारा ‘शेखर एक जीवनी’ में लिखी गई उनकी भूमिका के शब्द कानों में गूंजने लगे— “आजकल का अधिकांश हिन्दी साहित्य और आलोचना एक भ्रान्त धारणा पर आश्रित है, कि आत्मघटित (आत्मानुभूति नहीं, क्योंकि अनुभूति बिना घटित के भी हो सकती है) का वर्णन ही सबसे बड़ी सफलता और सबसे बड़ी सच्चाई है। यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं कि कल्पना और अनुभूति–सामर्थ्य (Sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर सकना और वैसा करते समय आत्मघटित की पूर्व–धारणाओं और संस्कारों को स्थगित कर सकना—objective हो सकना—ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है।”


फिर टी.एस. इलियटThere is always a separation between the man who suffers and the artist who creates, and the greater the artist the greater the separation.


मैं सोचने लगा कि महान लेखिका के अनुभूति की क्षमता का विस्तार कहां तक है! एक उपन्यास, जो मेरे गांव—मेरे समाज के भोगे हुए यथार्थ का इतिवृतात्मक वर्णन हो। बिसू, दा साहब, त्रिलोचन रावत, सुकुल बाबू, बिंदा, हीरा सक्सेना, जोरावर, महेश शर्मा, सिन्हा आदि पात्रों को मैं अपने चारों ओर महसूस कर सकता था और कथानक का मंचन भी(महाभोज को बाद में मन्नू भंडारी ने नाटक के रूप में लिखा।)।


फिर टकराया “यही सच है” कहानी से; नई कहानी आंदोलन की डायरी शैली में लिखी गई एक बेहतरीन रचना; संजय, निशीथ और अपने पूर्व व वर्तमान प्रेमी के बीच उलझी दीपा की उलझन भारी प्रेम-कथा। 90 के दशक में लिखी गई कहानी में एक यौवना स्त्री का द्वंद्व; जिसे यदि आज भी कोई लड़की पढ़े तो उसे अपने आज के जीवन का द्वंद्व लगेगा और रजनीगंधा के ताजा फूलों की खुशबू महसूस होगी। इस कहानी पर बासु चटर्जी ने एक फिल्म भी बनाई; नाम रखा— “रजनीगंधा”


आज वे इस खूबसूरत दुनिया से विदा ले अनन्त में विलीन हो गई हैं और मैं उन्हें श्रद्धांजलि देने की कोशिश में उनके रचना संसार के मेरे हिस्से आए भाग में घूम रहा हूं। वे अद्भुत लेखिका थीं और यदि टी० एस० इलियट की व्याख्या के आधार पर कहूं तो महानतम थीं और मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे उन्हें पढ़ने का अवसर मिला। आज उनके महापरिनिर्वाण के दिन मैं मां हिन्दी का नन्हा शावक उनके महान लेखन के समक्ष नतमस्तक हूं और अपने हिस्से का प्रणाम व श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

(श्रीमद्भगवद्गीता | अध्याय ३ | श्लोक २१)



~ ऋषि द्विवेदी

No comments: