तुम्हें पढूँ या किताबें समझ नहीं पा रहा हूं।
सपने बनूं या वादे समझ नहीं पा रहा हूं मैं।
अपनी खामोशियों में डूबा हुआ,
तुम्हें ताउम्र सुनना चाहता हूं,
तुम्हारी नटखटी शैतानियों को शब्द देते देते,
उन्हीं का होता जा रहा हूं मैं।
समझ नहीं पा रहा हूं मैं।
तुम्हारे फोन की पहली घंटी से,
शुभ रात्रि के अंतिम मैसेज तक.,
हर पल तुम्हें सुलझाता हुआ,
खुद ही उलझता जा रहा हूं मैं.,
हर रात सपनों की चादर में खुद को समेटे हुए,
तुम्हें पाने की चाहत को अपने दिल पर उकेरता जा रहा हूँ मैं,
तुममें पैबस्त होने की चाहत में उधेड़बुन किए जा रहा हूं मैं,
फिर भी कुछ तो है, जो समझ नहीं पा रहा हूं।
तुम्हारा हंसना, रोना, झगड़ना, डांटना, फिर मान जाना,
और मुझे समझाना,
सब मेरे लिए दुआओं से हो गए हैं,
अब तो युँ है आलम कि बस जिए जा रहा हूं मैं,
समझ नहीं पा रहा हूं॥
Copyright : ऋषि
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