खो गया है गाँव मेरा।
एक प्रातः जब उभरती,
गाँव की चारो दिशाएँ
बचपनों से भर निखरतीं,
डालती है अब वहीं पर हृदय-शून्य उजास फेरा।
अपनेपन की क्या कमी थी,
किन्तु लगता है कि जैसे
चोर कोई कुशल आया,
और उसने मोह-ममता पोटली पर हाथ फेरा।
ढोलकों की थाप पर वे
फाग-चैती की बहारें,
सजल उर पिचकारियों की
प्रेम-रस भीनी फुहारें,
अब न जाने क्यों बड़ी ही
अनमनी-सी दीखती हैं,
सरल हृदयों में अजब-सा हो गया भ्रम का बसेरा।
दूरियाँ बढ़ने लगी हैं
समय ने बन्धन लगाया,
ढह गया बरगद पुराना
खोखलापन सह न पाया,
शाख पर जो घोसले थे
उजड़ कर सब गिर गये हैं,
उठ गयी चौपाल, सूना हो गया हर-हाल डेरा।
खो गया है गाँव मेरा
No comments:
Post a Comment