Saturday, 18 March 2023

रास्ता बीत रहा है।



जब मैंने पढ़ा कि केदारनाथ सिंह ने लिखा है “‘जाना’ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।” तो मैं स्वयं को इस पर आपत्ति करने से नहीं रोक पाया। मैं मानता हूं ‘जाना’ नहीं बल्कि ‘बीतना’ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया होनी चाहिए। जब कुछ बीत जाता है तो उसका अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए आंखों से ओझल हो जाता है; पुनरावृत्ति की सारी संभावनाएं मर जाती हैं; कोई भी शक्ति उसे वापस नहीं ला सकती, इसे एक रासायनिक अभिक्रिया की तरह समझा जा सकता है जबकि ‘जाना’ में भौतिक अभिक्रिया के गुण दिखाई पड़ते हैं–जाना, में आना अंतर्निहित है; यह भले ही व्याकरणिक विधानों पर खरा न उतरे, पर अनुभव कई बार सिद्धांतों से अधिक महत्व रखते हैं और प्रासंगिकता भी। साथ ही संवेदनाएं और प्रेम किसी समीकरण के मोहताज भी तो नहीं हैं, वे अपनी अंतर्यात्रा में अनेक सिद्धांत और व्याकरण गढ़ते और मिटाते हैं।

सालों पहले, जब मैं तुम्हें नहीं जानता था, तब कोई यदि तुम्हारे घर की दिशा में जाने को कहता तो ऐसा लगता है जैसे पैरों में कांटे उग आए हों; बड़ा बोरिंग रास्ता जाकर मेरे एक रिश्तेदार के घर पूरा होता था। ऊबड़-खाबड़ सड़क, जोकि केवल बड़े पत्थर डाल कर बनने की प्रतीक्षा में ऐसे छोड़ दी गई हो जैसे कोई अपने प्रेम के पूर्ण होने की प्रतीक्षा में अहिल्या बना पड़ा हो, से होकर गुजरना और बेतरतीब घुमावदार रास्तों पर गाड़ी मोड़ना मुझे रास नहीं आता था। मैं बचने के सौ बहाने बनाता और यदि सफल हो जाता तो वह मेरे लिए एक पुरस्कार विजित करने जैसा अनुभव होता। कई बार जाना पड़ता तो किनारे लगे वृक्षों के नीचे या बीच में पड़ने वाली छोटी नदी के पुल के ऊपर टायर पंचर होने का बहाना कर घंटों बैठा रहता, देखता रहता कि कैसे लोग उन कठिन रास्तों पर अपने लिए सुगम मार्ग खोज रहे हैं, जो मैं कभी नहीं कर पाया था।

“विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान”

फिर एक दिन तुम मिलीं और सब बदल गया। ऐसा प्रतीत होने लगा कि उन रास्तों पर किसी ने फूल बिछा दिए हों। वे रास्ते के पत्थर सहचर मालूम पड़ने लगे। वे घुमावदार रास्ते मेरे अच्छे मित्र बन गए और उधर से होकर गुजरना जीवन में एक आनंद को तरह महसूस होने लगा। जब भी दूर-देश से वापस आता और तुम्हारा घर पर होने के संदेश मिलता तो ढलती शाम अपने किसी मित्र को पीछे की सीट पर विराजमान कर सैर पर निकल पड़ता। वे रास्ते, जिनपर जाने का सोच कर ही मेरे पैरों में कांटे उग आते थे, कब बीत जाते पता ही नहीं चलता। रास्ते बीत जाने के बाद मैं उस कार्य को करता जिसे मैंने तब तक के जीवन में सबसे घृणित और बोझिल माना था, तुम्हारे घर के आस-पास चक्कर लगाना। प्रेम कितना निष्ठुर होता है, वह सबसे विद्रूप और कष्टकर को भी प्रियतम हेतु सबसे सुंदर, आरामदायक और स्वीकार्य बना देता है।

“यही दुख-सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान”

यह सिलसिला, तुम्हारा मेरे जीवन में होना; हमारी बातों का कई दिनों में एक बार से, दिन में कइयों बार में बदल जाना; ये सब इतनी तेजी से हुआ कि हम इस बदलाव के आभास का आनंद ही नहीं मना पाए। ऐसा लगने लगा कि बस अभी जो हो रहा है यही सब-कुछ है। कुछ दिन तो ऐसे बीते कि तुमसे बात हुई, सोया और उठा तो फिर तुमसे बात हुई; खाना खाया, उसके बाद तुमसे बात हुई और फिर मूवी देख कर तुमसे बात करते-करते सो गया। अब बताओ इसमें कौन जीवन और उसकी अर्थवत्ता के बारे में सोचे, सो मैंने भी यह कार्य भाग्य के भरोसे छोड़ कर स्वयं को तुम्हें सौंप तत्कालीन आनंद को जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया, लेकिन यह तो जीवन का स्थापित सत्य है कि जो वस्तु जितनी तेजी से अपनी अवस्था बदलती है उतनी ही तेजी से पुनः वर्तमान अवस्था में वापस लौटती है; सो वही हुआ और मैंने या मेरे भाग्य ने मुझे पुनः मेरे एकांत में मुझे ला पटका।

आज फिर जब दूर कहीं से लौटते हुए तुम्हारे घर के करीब से गुजरा तो अचानक से शरीर स्पंदित हो उठा। घर की तरफ़ देखते हुए तेजी से अगले चौराहे पर पहुंच रुक गया। शरीर के स्थिर होने की प्रतीक्षा करने लगा और इधर मस्तिष्क एक अनसुलझे द्वंद्व में उलझा गया; पुनः घर की तरफ़ जाने का द्वंद्व। भाव उठता कि न जाऊं, फिर जाने कैसे वह जाने के लिए प्रेरित करने लगता। थोड़ी देर वहीं खड़े होकर इंतजार किया। शाम अब गहरी होने लगी थी, सूरज अपनी रश्मियों को समेटता पश्चिम की ओर भाग रहा था। मेरी चेतना ने कहा कि यदि तुम घर होगी तो इस समय जरूर अपने चौखट पर खड़ी होगी; अंततः मैं इस कल्पना के सत्य होने की कामना करता हुआ तुम्हारे घर की तरफ़ लौटा।

गाड़ी दूसरी तरफ़ रोकी; इधर-उधर नजरें दौड़ाईं तो पता चला कि मेरे और तुम्हारे घर के दूसरी ओर के अकेले खड़े, सूखे टुंड हो चुके वृक्ष के अलावा वहां और कोई नहीं था; दो अकेलों ने एक दूसरे को पहचान दी और मैंने अनमने मन से तुम्हारे चौखट की ओर नज़र घुमाई; इस बार उधर देखने के दौरान आंखों और विचारों में वैसा लास्य उत्पन्न होता प्रतीत नहीं हुआ। तभी तुम्हारी मां बाहर आई और अंदर चली गईं; मैं फिर भी वहीं खड़ा जाने किस कल्पना में खोया तुम्हारे आने की प्रतीक्षा करता रहा, पर तुम नहीं आई। थोड़ी देर मैंने वहीं खड़े होकर तुम्हारे बीतते वादों के आलोक में जीवन के किसी सुखद क्षण में अपनाए उस घर को बीतते देखने लगा। मैं, तुम, घर और समय चारों एक साथ बीतते महसूस हुए।

मैंने गाड़ी मोड़ ली और घर की तरफ़ चल पड़ा। मोड़ से आगे निकलते ही अचानक से मन में फिर वही भाव जागा; पत्थरों की अव्यवस्था गाड़ी के टायर से होती हुई मुझमें बैठने लगी; रास्ते की कुरूपता एक बार फिर मेरे शिथिल मन को विचलित करने लगी; और तभी एक मोड़ आ गया। मैंने जैसे ही गाड़ी धीमी करने के लिए ब्रेक लगाया, गाड़ी का पिछला धड़ा स्पीड न व्यवस्थित हो पाने की वजह से सड़क के किनारे गड्ढे में जाता रहा। मैं अव्यवस्थित, विशृंखल, सड़क के किनारे पड़ा, धूल में सना, जीवन की गति को पुनः उसी तीव्रता के साथ बदलते देख रहा था, जैसे तुम्हारे मिलने के बाद बदली थी। इस बीतने के बीच मैंने सीखा है कि अनभिज्ञता और अहंकार मनुष्य के दो प्रबल शत्रु हैं।

मैं स्वयं को समेट कर पुनः अपने घर की ओर आगे बढ़ रहा हूं और शनैः-शनैः बीत रहे इस रास्ते के साथ मेरे जीवन में तुम्हारे होने की सारी संभावनाएं भी बीत रही हैं।

कहना न होगा कि ‘बीतना’ हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है।

6 comments:

आयुष said...

❣️🫂

HEALTHY LIFESTYLE said...

sccha premi

अर्चना ठाकुर said...

अदभुत, पूर्ण समग्रता लिए

इति शिवहरे said...

कितना सुन्दर, कितना सहज!
एक साँस में पढ़ा जाने वाला।

भvyaa said...

👏👏💐😇

Krati Jain said...

Very beautifully written and presented 😍