निदा फ़ाज़ली जी का शेर-
"हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना"
नई कहानी आंदोलन के वास्तविक प्रणेता कहे जाने वाले कमलेश्वर पर बहुत फिट बैठता है।
यदि आप कमलेश्वर के विषय में दुष्यंत कुमार के कहे को पढ़ेंगे और उसके बाद मन्नू भंडारी के लिखे लेख ‘कितने कमलेश्वर’ पढ़ेंगे, तो आपको दोनों में कमलेश्वर की बहुत मुख्तलिफ शख्सियत मिलेगी। दुष्यंत कुमार के कमलेश्वर बहुत ही संजीदा, विनम्र और सामाजिक रुप से व्यवस्थित शख्सियत हैं, वही मन्नू भंडारी के कमलेश्वर मनमौजी, क्रूर और बेअदबी करने वाले मिलेंगे।
अपने लेख ‘कितने कमलेश्वर’ में मन्नू भंडारी जी लिखती हैं—
“फिल्मों के साथ-साथ कमलेश्वर जी की ऐय्याशी के किस्से भी जब-तब सुनाई देते रहते। दिल्ली आने पर एक बार बासु चटर्जी (फिल्म निर्देशक) ने बताया, ‘मालूम है! आपके कमलेश्वर जी के एक बेटा रौशनी सचदेव (बदला हुआ नाम) से भी है।’ तो मैं विश्वास ही नहीं कर सकी। मेरे अविश्वास करने पर उन्होंने गोद में बच्चा खिलाती हुई रौशनी से अपनी बातचीत जस की तस सुना दी। याद आई रवींद्र कालिया की अपनी शैतानियत में लिपटी वह बात, ‘मैं जब बंबई गया था तो मुझे वहां कई छोटे-छोटे कमलेश्वर घूमते नजर आए थे।’ पहली बार कमलेश्वर जी के लिए मन में एक धिक्कार-भाव फूटा और मेरे सामने गायत्री भाभी का पहली मुलाकात वाला चेहरा घूम गया, उदास, आभाहीन। हो सकता है कि ऐसा एक तो दीपा संबंध के दंश की वजह से हो। दूसरा इस भय से कि इस संबंध के चलते कमलेश्वर जी कहीं उन्हें छोड़ ही न दें। उस पीढ़ी के लेखकों में पत्नियों को छोड़कर प्रेमिकाओं के साथ रहने का आम प्रचलन था ही। अश्क जी, भारती जी, राकेश जी के उदाहरण सामने थे, सो यह भय भी स्वाभाविक ही था। कमलेश्वर जी के सामने हीन-भाव से ग्रस्त भाभी सब कुछ बर्दाश्त करने के लिए तैयार थीं। कर भी रही थीं जिससे इस स्थिति में बची रह सकें। पर उनकी सहनशीलता पर कितने और आघात करेंगे कमलेश्वर जी? या शातिराना अंदाज में इस बेटे के लिए भी पहले बेटे की तरह कोई किस्सा गढ़कर सुना दिया हो भाभी को।”
इसी लेख में वे मोहन राकेश जी के मृत्यु के समय हुए एक वाकए का जिक्र कुछ इस प्रकार करती हैं—
“सन् 72 में राकेश जी की आकस्मिक मृत्यु की सूचना मिलते ही कमलेश्वर जी ने भाभी को तो उसी शाम बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में चढ़ा दिया और खुद भारती जी के साथ सवेरे फ्लाइट से दिल्ली पहुंचे। इन लोगों के आने के बाद ही अंतिम संस्कार हुआ। हम लोग भी सवेरे से वहां बैठे थे। शव जाने के कुछ देर बाद गायत्री भाभी पहुंचीं। उनकी लस्तपस्त हालत ही बता रही थी कि बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में उन्हें काफी तकलीफ उठानी पड़ी है। आते ही अनीता से मिलकर रोने-धोने का दौर तो समाप्त हुआ पर वहां उन्हें चाय के लिए भी कोई पूछ सके, ऐसी स्थिति नहीं थी। एक बजे के करीब जब हम घर जाने के लिए उठे तो मैं, गायत्री भाभी को खींचकर अपने साथ ले आई। घर लाकर उन्हें चाय पिलाई, नहाने की व्यवस्था की, खाना खिलाया और कहा कि अब थोड़ा आराम कर लें। कोई तीन बजे के करीब अचानक कमलेश्वर जी प्रकट हो गये। दरवाजा मैंने ही खोला था कि मुझे देखते ही बोले, ‘मन्नू, विश्वास ही नहीं होता कि राकेश चला गया।’ उनकी आवाज सुनते ही भाभी निकल आईं। भाभी को वहां देखकर उनका दुख एकाएक गुस्से में बदल गया,‘तुम यहां?’ गिड़गिड़ाती-सी भाभी बोलीं,‘मैं नहीं आ रही थी ये तो मन्नू जी मुझे खींचकर ले आईं कि घर चलकर कुछ खा लो।’ उनकी पीठ पर भरपूर हाथ का एक धौल जमाते हुए दहाड़े कमलेश्वर-‘यहां खाने-पीने के लिए आई हो या अनीता के पास बैठने के लिए? लो मैं खिलाता हूं तुम्हें!’ और भाभी को अपनी ओर खींचकर वे दूसरा धौल जमाने ही वाले थे कि मैं बीच में आ गई- ‘क्या कर रहे हैं आप? बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में रवाना कर दिया उन्हें, हालत देखी है उनकी!’ कमलेश्वर जी शायद थोड़ी देर रुकने के लिए आए थे। रोना-चिल्लाना सुनकर राजेंद्र भी निकल आए। उन्होंने भी कमलेश्वर को रोकने की बहुत कोशिश की पर वे बिल्कुल नहीं रुके और रोती गिड़गिड़ाती भाभी को घसीटते हुए ले गये।”
एक और घटना का जिक्र करते हुए मन्नू भंडारी जी लिखती हैं—
“इस घटना के काफी दिन बाद अपनी लेखकीय-यात्रा के दौरान नई कहानी की इस तिकड़ी के आपसी संबंधों के सिलसिले में मैंने ही किया था यह फोन और पूछा था- ‘कमलेश्वर जी! नई कहानियां के सौजन्य संपादक की हैसियत से राकेश जी आपके पास अपने आदेशों की जो छोटी-छोटी पर्चियां लिखकर भेजते थे, मैं जानना…’ उन्होंने मुझे वाक्य भी पूरा नहीं करने दिया और इस कदर भभक पड़े। ‘क्या बकवास कर रही हो तुम! मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम इतनी गिरी हुई औरत हो! ऐसी घटिया हरकत भी कर सकती हो! क्यों तुम दोनों पति-पत्नी राकेश की छवि खराब करने में लगे हो! पहले तो राजेंद्र यादव ने पुष्पा (राकेश जी की दूसरी पत्नी) को टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस में भेजकर हंगामा खड़ा करवाया और अब तुम हो कि इस कमीनेपन पर उतरी हुई हो! अरे! राकेश ने तो इतना स्नेह, इतना प्यार, इतना सम्मान दिया है मुझे- वो क्या भेजेगा पर्चियां; पर तुम हो कि।’ मैंने फोन काट दिया और सोचने लगी कि ये क्या हो गया है कमलेश्वर जी को? मेरे नाम के आगे ऐसे विशेषण तो आज तक मेरे किसी दुश्मन ने भी नहीं लगाये थे, फिर कमलेश्वर जी! पहली बात तो यही उभरी कि शायद इन्होंने बुरी तरह पी रखी है, इन्हें खुद भी होश नहीं होगा कि क्या बोल रहे हैं। या कहीं ऐसा तो नहीं कि आज यश और धन के ढेर पर बैठकर अब ये बर्दाश्त ही नहीं कर सकते कि कोई उनके संकट के दिनों पर उंगली भी रखे! जो भी हो, उसके बाद मैंने भी फोन करना बंद कर दिया।”
वहीं कमलेश्वर जी के बारे में दुष्यंत कुमार जी की सोच मन्नू भंडारी जी से बहुत ही मुख्तलिफ है। वे लिखते हैं कि—
“एक पूरी किताब कमलेश्वर के ऐसे संस्मरणों पर लिखी जा सकती है, मगर उससे भी उसके व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं हो सकता। यह तो मात्र प्रासंगिक सत्य है कि अपनी विलक्षण मेधा द्वारा उसने अल्पकाल में, इच्छामात्र से, व्यंग्यविनोद की प्रकृति को आत्मसात कर लिया। मूल सत्य यह है कि उसके असल व्यक्तित्व की अन्तरधारा में न तो व्यंग्य है और न हास्य। वह स्वभाव से अत्यन्त संवेदनशील, भावप्रवण और गम्भीर व्यक्ति हैं, उसका मूल भाव करुणा है–सघन, पुंजीभूत करुणा–जिसके कारण वह अपने व्यंग्य में भी अनुदार नहीं हो पाता, यहाँ तक कि उसकी फबती से आपको कहीं ज़रा भी चोट पहुँची तो शायद पहला वही होगा जो तत्क्षण इस बात को भाँप लेगा और अवसर मिलते ही, झिझकते हुए, आपका हाथ अपने हाथ में लेकर इस क़दर प्यार से दबाएगा कि उसकी हथेलियों की ऊष्मा में (अगर आप थोड़े भी समझदार हैं तो) असल कमलेश्वर को खोज निकालने में आप भूल नहीं करेंगे। मैंने इस असल कमलेश्वर को इसलिए भी और जल्दी खोज लिया कि वह मेरे साथ बहुत रहा है। वैसे उसकी कुछ आदतें तो बड़ी बेहूदा हैं। उनमें से एक आदत के कारण उसके साथ सड़क पर चलना मुश्किल हो जाता है–रास्ते में उसे जो भी ‘राहीजी’, ‘पीड़ितजी’, ‘व्यथितजी’, ‘बेकलजी’, या ‘गुमनामी’ मिलेंगे, वह सबके लिए ‘एक मिनिट दुष्यन्त’ कहकर अटक जाता है। इलाहाबाद में शुरू-शुरू में जब वह खुद बहुत प्रसिद्ध नहीं हुआ था, उसके यहाँ बहुत-से साहित्यकार जमे रहते थे। और यह जानते हुए भी कि साहित्य-बोध नुस्खे देकर नहीं बाँटा जा सकता, वह भरसक सबका समाधान करने की कोशिश किया करता था।”
वे आगे कहते हैं कि—
“और हाँ, इन विरोधाभासों में कमलेश्वर स्वयं रहता ही नहीं, उन्हीं से वह सीखता भी है और लिखता जाता है। लेखन में असाधारण होते हुए भी वह बिलकुल साधारण-सा इनसान है–औसत से कुछ छोटा कद और साँवला रंग। नाक-नक्श तीखे और आँखों में ऐसा आकर्षण कि जिधर से देखिए, बँधते चले जाइए। रेडियो और टेलीविज़न में नौकरी कर चुने के कारण उसकी ज़बान, जो पहले भी मधुर थी, अब सधकर और मीठी हो गई है। सुरुचि उसकी विशेषता है। पैसा उसके पास टिकता नहीं है। पास के पचास किसी को देकर अपनी जरूरत के लिए पच्चीस रुपए के इन्तज़ाम के सिलसिले में वह परेशान-हाल घूमता हुआ मिल सकता है। वह दोस्तों की महफ़िलों में मिल सकता है, किसी बीमार के सिरहाने बैठा हुआ भी मिल सकता है, किसी सस्ती-सी दुकान में चाय पीता हुआ या बड़े होटल में नफ़ासत से खाता हुआ भी मिल सकता है। वह दूसरों के दुख में दुखी, उसकी परेशानियाँ सुलझाता हुआ और अपने दुखों में हँसता हुआ भी मिल सकता है। घर पर मिलना चाहें तो रात दो बजे के पहले नहीं मिल सकता। ‘नई कहानियाँ’ के दफ़्तर में मिलना चाहनेवालों को तो दिन के तीन बजे के बाद भी नहीं मिल सकता था, पर मिल गया तो सच्ची आत्मीयता से मिलता था।”
ऐसे में इस चरित्र की परिभाषा निदा फ़ाज़ली के शेर से समझे बिना आप किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाएंगे और न ही पूरी तरीके से सभी बिंदुओं को समझे, इस चरित्र और लिखी कहानियों पर समीक्ष्य दृष्टि डाल पाएंगे। यहां एकांगी होने पर वही स्थिति पैदा होगी जो आंख पर पट्टी बांधने के बाद हाथी पहचानने के दौरान किसी को हाथी, पूंछ की तरह लगता है किसी को सूंड की तरह और किसी को पैरों या पेट की तरह; और आप उलझते हुए अपने विचारों के भंवर में फंस गलतियां कर बैठेंगे।
इससे इतर बात करें तो, नई कहानी आंदोलन में राजेंद्र यादव, मोहन राकेश के साथ कमलेश्वर एक मजबूत स्तंभ के रूप में उभरते हैं। उनकी कहानियों में मध्यवर्ग की सभी पीड़ाओं का दृश्य दिखाई पड़ता है। उनका लेखन जिस तरह विकास क्रम में आगे बढ़ता है, मध्यवर्ग की पीड़ा भी उसी विकास क्रम में उनकी कहानियों में आगे बढ़ती है। मैनपुरी से इलाहाबाद तक की कहानियों से लेकर दिल्ली से मुंबई तक की कहानियों में जो बदलाव आपको देखने को मिलेगा, वह बदलाव कमलेश्वर के भोगे हुए यथार्थ का है न कि बनावटी।
यह अलग बात है कि जब एक लेखक लिखते-लिखते जब अपने लेखन के विकास के उत्तुंगता पर पहुंच जाता है तो उसके लेखन में परपीड़ा के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। एक लेखक कितने दिन तक अपने भोगे हुए यथार्थ को लिखेगा? जाहिर है कि सामाजिक जीवन में आकर वह कई लोगों से मिलेगा, उनके सामाजिक यथार्थ को समझेगा और उससे उनकी पीड़ा को निकाल कर उस पर प्लॉट तैयार करेगा। नई कहानी से समांतर कहानी की जो यात्रा कमलेश्वर ने की है वह इसी संघर्ष की उपलब्धि है।
‘समांतर कहानी’ के पक्ष में तर्क देते हुए उन्होंने लिखा,‘‘आदमी को टुकड़े-टुकड़े में न देखकर सम्पूर्ण रूप में देखने और उसकी सम्यक सम्पूर्ण लड़ाई को दिशा और रूप देने का कार्य इस साहित्य ने अपने हाथों में लिया है, जो आज का समय सापेक्ष समांतर साहित्य है।’’ इससे उनके व्यक्तित्व के विकास की सच्चाई का पता चलता है लेकिन इसके अलावा उनके जीवन में उनके करीब रहे लोगों द्वारा जिस कमलेश्वर के रेखाचित्र निर्मित होते हैं, वह एक व्यक्ति में मिलना मुश्किल है और यही कमलेश्वर और उनके कहानियों की विचित्रता है। ‘राजा निरबंसिया’ से ‘तुम कौन हो’ तक आपका राब्ता कितने कमलेश्वरों से होगा ये किसी को नहीं पता।
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