Thursday, 18 August 2022

वियोगी संस्मरण

 


जैसे ही आप मुखर्जीनगर की सड़क सीमा पार कर गांधी विहार में प्रवेश करें तो सड़क से नीचे उतरते ही अजीब-सी ठंड आपको अपने आगोश में जकड़ती है; अचानक से पता चलता है कि जीवन में वृक्षों का क्या और कितना महत्व होता है। उस स्थान से आधा फर्लांग चलने के बाद बाएं हाथ की तरफ़ किताबों की एक पुरानी दुकान है। वैसे तो यह सिविल सेवा परीक्षा की पुरानी और पायरेटेड किताबों से पटी होती है, लेकिन साथ ही साहित्य और दर्शन की कुछेक अच्छी किताबें भी कभी-कभी कोने में दुबकी मिल जाती हैं।

हम साहित्यप्रेमी यायावरों के जीवन में किसी किताब की दुकान का मिलना एक उत्सव की तरह होता है। ऐसा लगता है कि–

“गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त,
हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त।”
(अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है और सिर्फ यहीं पर है।)

दुकान मिलते ही हम कूद पड़ते हैं उस महासागर में मणियां खोजने, फिर थोड़ी देर एक इंटेंस खोजबीन का सिलसिला चलता है; कई बार तो यह प्रक्रिया इतनी लंबी खिंच जाती है कि दुकानदार गाली देने वाली नज़रों से घूरने लगता है, क्योंकि तब तक उसे भी पता चल चुका होता है कि मेरी दुकान पर आया यह क्षणिक भूकंप केवल किसी के आनंद का पर्याय मात्र है। वैसे इस जलालत से निकलने का एक तरीका भी है कि किसी किताब का ऐसा संस्करण मांग लें जो अभी तक छपा ही न हो और गहरा अफ़सोस जाहिर करते हुए कहें कि ‘मुझे केवल आपकी दुकान से उम्मीद थी अब पता नहीं कहां मिले।’

ख़ैर यह सब बातें तो प्रसंगवश वाले कॉलम की हैं, आते हैं मुख्य मुद्दे पर;
तो हुआ युँ कि आज भी मैं जैसे ही उस दुकान के पास पहुंचा भूखे घात लगाए शेर की तरह दुकान रूपी हिरण पर झपट पड़ा और पाश्चात्य काव्यशास्त्र की एक किताब खोजने लगा, क्योंकि मेरे ऊपर आजकल प्लेटो को पढ़ने, उनके काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को समझने का नया ख़ुमार चढ़ा है। एक किताब मिली; पुरानी थी; किसी अमीषा त्रिपाठी ने बेची थी। किताब खोलते ही अनुक्रमणिका से पहले वाले पन्ने पर एक स्त्री की प्रेमलिप्त वेदना की झलकियां स्पष्ट दृष्टिगोचर थीं। अमीषा ने काव्यशास्त्रीय विधानों से ओतप्रोत हो स्वयं को शिवम को सौंप दिया था और उसकी आधिकारिक घोषणा इस पुस्तक के प्रथम पेज पर नज़ीर के रूप में अंकित कर दी थी।

मुझे चंदर याद आया और याद आई सुधा की चिट्ठियां; जिसमें सुधा, चंदर को अपना देवता कहकर संबोधित करती है और उसी क्रम में चंदर की होने को आतुर बिनती भी, वह भी चंदर को देवता मानती है और इतना पवित्र स्वीकारती है कि समर्पण अपने पूरे लय में निखर उठता है; तब से मैं सोच रहा हूं कि क्या सच में स्त्रियां इतनी भोली होती हैं या वे इस गहन समर्पण हेतु ही निर्मित की जाती है! इसी बीच याद आ रहे हैं वे पीड़ित निब्बे, जो 'मेरी वाली सबसे अलग है' के राग अलापते, वियोग की अग्नि में जलकर, सैकड़ों बार नसें काट चुके हैं।

कितना विरोधाभास है! जरूर किसी ने एक निब्बा होने से सख़्त लौंडा बनने की दूरी तय करने के बाद ही भावावेश में यह पंक्ति उचारी होगी कि–

त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम, देवौ ना जानाति कुतो मनुष्यः।
(पुरुष का भाग्य और स्त्रियों का चरित्र देवता तक नहीं जान पाते तो मनुष्यों की तो बात ही क्या है!)

इस पंक्ति में स्त्रियों के न बूझे जा सकने वाले चरित्र के साथ-साथ उनके ही भाग्य का वर्णन है, जो ‘मेरी वाली अलग है’ कहते हुए एक दिन ओशो बन जाते हैं। समझ पा रहा हूं कि कैसे पहला कवि वियोगी हुआ होगा और कैसे उसकी आह से गान प्रस्फुटित हुआ होगा; क्रौंच पक्षी और महान वाल्मीकि की कहानी तो बस पहली दर्ज अभियक्ति मात्र है।

ख़ैर! अमीषा जी ने पुस्तक को यथास्थान पहुंचा अपने हिस्से के प्रेम और अपने प्रेमी के भाग्य का महापरिनिर्वाण लिख दिया है और अब 'शिवम' की बारी है।

मुझे तो इस पूरे प्रसंग पर बस इतना कहना है कि–
“प्यारे शिवम! ईश्वर तुम्हें हज़ार ब्रेकअप्स सहने की शक्ति प्रदान करे!”


1 comment:

HEALTHY LIFESTYLE said...

bhut khoob likha h Rishi ji