
आप मध्य काल के कवियों को पढ़ें और “मलिक मोहम्मद जायसी” को ही न पढ़ें यह कैसे हो सकता है। निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ हस्ताक्षर और इनकी कृति “पद्मावत” सर्वोत्तम; मेरी बेहद पसंदीदा रचनाओं में से एक। इसलिए नहीं कि यह मध्य काल की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में से एक है; कम से कम मेरे लिए यह इकलौता कारण नहीं है, बल्कि एक और कारण भी है - इसका लोक अवधी में लिखा जाना; मेरी मातृभाषा में।
मैं अवध क्षेत्र के गोण्डा जिले से हूं और मैं मानता हूं कि हमारी अवधी ही सबसे शुद्ध अवधी है; साहित्यिक ही नहीं, बोलचाल वाली भी। क्योंकि जहां से इसके संस्कार आते हैं, वे हमारे ही घरों के आंगन हैं। इसका दूसरा प्रमाण यह भी है कि मैंने अपने क्षेत्र के अलावा अवधी को इतनी स्वतंत्रता और शुद्धता के साथ बोलते और स्वीकारते कहीं और नहीं सुना। अन्य क्षेत्रों की भाषाओं और बोलियों पर भी अवधी का प्रभाव है और प्रयोगधर्मिता के आधार पर वे भी अवधी कह दी जाती हैं, लेकिन बिना मिलावट वाला घी बस हमारी ही दुकान पर मिलता है।
खैर.... लौटते हैं पद्मावत पर!
हर बार पद्मावत पढ़ते-पढ़ते में हमेशा अपने क्षेत्र से कुछ न कुछ नए संबंध खोज ही निकालता हूं। कई बार ये महत्वपूर्ण होते हैं और कई बार बस कुतूहल मात्र। मेरे जैसा एक सामान्य पाठक सारे बिंदुओं को एक बार में पहचान भी तो नहीं सकता, आखिर जायसी बनना मुझ जैसे पिपासु के लिए संभव-असंभव की परिधि से भी कोसों दूर है।
‘पद्मावत’ जहां एक तरफ राजा रत्नसेन सिंह के ऊहात्मक प्रेम-प्राप्ति की साधना को लेकर अपना दायरा बढ़ाती है, वहीं दूसरी तरफ ‘नागमती और उनका वियोग वर्णन’ पद्मावत को लोक संस्कृति के मध्य में लाकर खड़ा कर देता है और यही वह खंड है जो ‘पद्मावत’ और जायसी दोनों को अद्वितीय बनाता है और लोक संस्कृति के लिए उन्हें ग्राह्य बनाता है। इसी ‘नागमती वियोग वर्णन-खंड’ में एक समय आता है, जब नागमती अपने विरह वेदना की कातरता को बयान करती हुई ‘बारह-मासा’ का सहारा लेती हैं, जो निम्न हैं -:
१. चढा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह दुंद दल बाजा॥२. सावन बरस मेह अति पानी। भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥३. भा भादों दूभर अति भारी। कैसे भौंर रैनि अँधियारी॥४. लाग कुवार, नीर जग घटा। अबहूँ आउ, कंत! तन लटा॥५. कातिक सरद-चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥६. अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी। दुभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी?॥७. पूस जाड थर-थर तन काँपा। सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा॥८. लागेउ माघ, परै अब पाला। बिरह काल भएउ जड काला॥९. फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा॥१०. चैत बसंता होइ धमारी। मोहिं लेखे संसार उजारी॥११. भा बैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चंदन भा आगि॥१२. जेठ जरै जग चलै लुवारा। उठहि बवंडर परहिं अँगारा॥
यह बारहमासा पढ़ते हुए अचानक से मुझे अपने गांव की होली में गाई जाने वाली ‘चौताल’ याद आ गई।
हमारे गांव में होली के दिन, दिन के पूर्वार्द्ध में होली खेली जाती है और उत्तरार्ध में गांव के कुछ बड़े-बूढ़ों का एक समूह गांव में घूम-घूम कर सभी के दरवाजे पर थोड़ी-थोड़ी देर के लिए ढोल, मजीरा व हारमोनियम आदि के साथ गीत, भजन आदि गाते हैं। इसी को हमारे यहां ‘चौताल’ के नाम से संबोधित किया जाता है। अभी तक की जानकारी के अनुसार ऐसा कार्यक्रम उत्तर भारत के लगभग प्रत्येक स्थान पर बस कुछ परिवर्तनों के साथ मनाया जाता है और उसके नाम भी ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ सूत्र के अनुसार अलग-अलग होते हैं।
मलिक मोहम्मद जायसी को पढ़ने से पहले मैंने उन्हीं चौतालों में ही ‘बारह-मासा’ का वर्णन सुना था और वह भी एक स्त्री की विरह वेदना की ही अभिव्यक्ति थे। मुझे ठीक से याद नहीं, इसीलिए मैं यह दावा नहीं कर सकता कि वे वही बारह-मासा हैं, जो जायसी ने लिखे हैं या किसी अन्य कवि की कृति अथवा क्षेत्रीय श्रुति संस्कृति का एक हिस्सा; लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट है कि जायसी के ‘बारह-मासा’ के माध्यम से विरह वर्णन, मेरी अपनी लोक संस्कृति, मेरे अपने लोक परिवेश का है, जो मुझे जायसी, उनकी अवधी और उनकी रचना प्रक्रिया को समझने में उत्प्रेरक बनता है।
इस तारतम्यता से मैंने यह भी महसूस किया कि बहुत जरूरी होता है कि अपने आसपास के परिवेश और संस्कारों को सीखने के लिए उनसे संबंधित साहित्य पढ़ा जाए, क्योंकि वे आपके लिए एक सूत्र का कार्य करते हैं। मुझे प्रतीत हो रहा है कि जायसी जी ने लोक अवधी को जिस प्रकार पद्मावत में सहेजा है वह अप्रतिम है। उसकी विषयगत विशेषता को आप केवल पद्मावत पढ़कर ही महसूस कर सकते हैं। उसकी समीक्षा या आलोचनात्मक मूल्यांकन पढ़ या उस पर बनी कोई फिल्म देख या कहानी सुनकर नहीं! इसलिए सभी अवधी-भाषी मित्रों और पाठकों को निवेदनात्मक सुझाव है कि वे एक बार पद्मावत अवश्य पढ़ें।
जब ‘नागमती वियोग खंड’ की बात हो ही रही है तो थोड़ा नागमती के विरह वेदना की भी चर्चा कर लेते हैं।
भारतीय हिन्दी साहित्य जगत के मूर्धन्य आलोचकों ने पद्मावत में उपस्थित ‘नागमती की विरह वेदना’ को हिन्दी साहित्याकाश में किसी विरहिणी की सर्वश्रेष्ठ विरह वेदना की प्रस्तुति कहा है। इसका एक कारण यह भी है कि भारतीय हिन्दी आलोचक प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम और विरह-वेदना से पति-पत्नी के प्रेम और विरह-वेदना को अधिक महत्व देते हैं। उस नजरिए से देखें तो तो नागमती की विरह वेदना लौकिक, पारिवारिक, भारतीय संस्कृति के अनुरूप, गृहस्थ जीवन से संबंधित एक भारतीय पत्नी की वेदना है। भारतीय संस्कृति में विवाह एक संस्कार है, इसलिए उससे संबंधित हर प्रयोजन को हम सांस्कृतिक मानकर स्वीकारते हैं।
इसीलिए तो महान रामचंद्र शुक्ल जी ने नागमती की विरह वेदना के सामने राधा की कृष्ण के वियोग से उपजी विरह वेदना को नकार ही दिया, जबकि राधा की विरह वेदना सामाजिक बंधन से मुक्त विरह वेदना है, जहां प्रेमिका केवल प्रेम हेतु वेदना से पीड़ित है जबकि नागमती के जीवन में सामाजिक बंधन की वेदना है, जहां नागमती पति के प्रेम नहीं अपितु समाज के व्यवहार को लेकर ज्यादा चिंतित हैं।
अब आधुनिक आलोचना इसके बारे में क्या कहेगी, यह तो आने वाले 10-15 सालों में पता चल ही जाएगा। वैसे मेरे लिए तो राधा का वियोग ज्यादा मुखरित और स्वतंत्र होने की वजह से ज्यादा सत्य प्रतीत होता है। देखे को सराहना तो २+२=४ जैसा मामला होता है, अनदेखे को महसूस करना ही व्यथित को समझने के बाद की व्यवस्थित समीक्षा होती है और मेरी नजर में अनदेखापन राधा के विरह वेदना में अधिक है, जिसे आलोचकों द्वारा कम महत्व प्राप्त हुआ है।
बाकी चर्च के डर से पृथ्वी को सौरमंडल का केंद्र कह देना कल भी गलत था, आज भी गलत है और आने वाले समय में भी गलत रहेगा।
अभी के लिए इतना ही...
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