Thursday, 14 July 2022

मेरा संघर्ष


मैंने सुना था जब कोई विद्वान होता है, खासकर संस्कृत भाषा का जानकार, उसके शब्द चयन में एक अद्भुत सुंदरता होती है और मेरे जीवन में इसके प्रथम उदाहरण मेरे पिताश्री स्वयं हैं। किसी विषय पर व्यवस्थित चर्चा करते समय वे अनायास ही अनेक श्लोक और शास्त्र के संदर्भों का जिक्र कर देते हैं। मेरे लिए सामान्य से लगने वाले विषय की चर्चा भी वे महान मानदंडों पर करते हैं। उनकी सामान्य जीवन की बातें भी बौद्धिक शब्द भंडार से भरी हुई होती हैं।

फिर जीवन कुछ अन्य संस्कृत के विद्वानों से मिलवाता है, जो स्वयं को विद्यार्जन हेतु स्व-प्रदेश से हरिद्वार तक खींच कर ले गए। और जब मैं उनसे हिंदू धर्म में विद्यमान दोष और उनके निवारण पर चर्चा करना चाहता हूं, हिंदू धार्मिक कर्म-कांड के विषय में जानना चाहता हूं तो वे मुझसे पूछते हैं कि क्या आपने संस्कृत पढ़ी है और जब मैं जवाब देता हूं- नहीं, तो मेरा मखौल उड़ाते हैं। मेरा तर्क पूर्ण होने से पूर्व वे अपनी आत्ममुग्ध भाषा में कहते हैं की " फेंको मत सुनो"। मेरे अंदर का युवक विचलित हो उठता है लेकिन मेरे संस्कार उसे बांध लेते हैं और उनका सम्मान करने की निष्ठा से मुझे विचलित नहीं होने देते।

मैं उनका अर्थहीन तर्क पूरी गंभीरता से सुनता हूं। उनकी मूर्खता पर हंसता भी नहीं हूं। सोचने लगता हूं कि क्या अधिक धन-अर्जन मद्यपान से भी अधिक हानिकारक और बुद्धि विकृत करने वाला है ?? क्या हरिद्वार तक की यात्रा में उन्होंने "फेंकना" शब्द का अर्थ या उत्पत्ति नहीं समझी ?? और यह भी कि क्या संस्कृत के विद्वानों ने अपने ही कुल की महान शास्त्रार्थ की परंपरा को पैरों के नीचे रौंद दिया है और अब वह उनके लिए मखौल के अलावा कुछ नहीं है ??

कहा जाता है कि पृथ्वी रत्नगर्भा है और आवश्यकता पड़ने पर इसके गर्भ से बहुमूल्य रत्न निकलते रहते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इस समय केवल कोयले ही निकल रहे हैं। कोई एंथ्रेसाइट, कोई बिटुमिनस, कोई लिग्नाइट, कोई पीट। मैं इन चारों में से किस वर्ण का हूं यह परिणाम भविष्य की गोद में सुरक्षित है, लेकिन इन हरिद्वार के विद्वान का वर्ण-निर्धारण ????

 

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