पिछले एक हफ़्ते से एक शोध पत्र लिखने की कोशिश में था कि संयुक्त प्रांत से उत्तर प्रदेश हुए इस बड़े भूभाग, जिसकी आबादी ब्रिटेन से भी अधिक है, को कैसे विभाजित किया जाए कि समृद्धि और शिक्षा की अलख राज्य के जन-जन तक सुचारू प्रवाहित हो सके और पुराने विभाजित आंकड़ों के आधार पर यह कैसे समझाया जाए कि विभाजन समृद्धि ही लायेगा? उत्तराखंड का संघर्ष निराश करने वाला रहा है फिर भी इसके विकास और प्रशासनिक व्यवस्था के सुधार से कुछ तो उम्मीद की ही जा सकती है।
लेकिन भावनात्मक मन उत्तर प्रदेश के विभाजन को सुन मेरे तार्किक मन से लड़ पड़ता है। माटी के प्रति श्रद्धा ने देश से उतर राज्य हेतु प्रेम को भी पुष्ट किया है। मुझ पर क्षेत्रवाद का इतना गहरा प्रभाव नहीं है फिर भी बचपन से आज तक पता लिखते हुए गांव, थाना, तहसील, जिला और फिर राज्य का नाम इतनी बार रिपीट हुआ है कि अब भूलता ही नहीं; अब ऐसे में छेड़छाड़ हो तो मन विरोध तो करेगा ही! आखिर भावना से भावना का वरण ही तो एक मनुष्य की सांस्कृतिक पहचान होती है।
खैर.. इससे इतर एक दुनिया दिखती है जो लुभावनी और आशावादी है। छोटे राज्यों में प्रशासनिक प्रबंधन के अपने फायदे होते हैं, मसलन शिक्षा, जोकि भारत के राजनीतिक स्तर पर सबसे कम चर्चित टॉपिक रहता है। दिल्ली का प्राथमिक विद्यालयों का शिक्षा प्रबंधन देख कर समझ आता है कि छोटे राज्य न केवल विद्यालय में अच्छी सुविधाएं दे सकते हैं बल्कि प्रबंधन और शासन द्वारा देखरेख को भी सुगम बना सकते हैं। उत्तर प्रदेश राज्य की जनसंख्या 24 करोड़ है ऐसे में पूरी जनसंख्या के लिए आवश्यक विद्यालय मुहैया करवा पाना ही एक कठिन टास्क है, अच्छी सुविधाएं तो उत्तर प्रदेश के बच्चों के सपने में भी नहीं आने वालीं।
आप देखेंगे कि राज्य की राजधानियों के पास के शहर तेजी से विकसित होते हैं। उनके विद्यालय हों या बाजार या फिर नगरपालिकाएं; या फिर गांव को विकसित कर कस्बा बनाना सबकुछ स्वतः स्फूर्त होता है। नागरिक अपने आसपास हो रहे बदलावों से सीखते हैं और अपनी जिंदगी को उसके अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं। यदि वे यह स्वयं से नहीं कर पाते तो सरकार पर एक दबाव समूह की तरह कार्य करते हैं, क्योंकि आसपास के विकसित शहर उनमें आशा का संचार करते हैं और सरकार द्वारा चली जा रही योजनाओं व उनके क्रियान्वयन से परिचित करवाते हैं।
लेकिन जब यही जब हम लखनऊ के परिप्रेक्ष्य में सोनभद्र या उसके आसपास के जिलों में देखते हैं तो एक विकास या जागरूकता की शून्यता दिखती है। ज्यादातर उद्योग धंधे राजधानियों के पास विकसित होना चाहते हैं क्योंकि उन्हें विकास के लिए अत्याधुनिक तकनीकी व बेहतर अवसंरचना की आवश्यकता होती है। आसपास की जनता भी राजधानियों की तरफ ही खींचती है; लेकिन 400 से 500 किलोमीटर दूर के किसी जिले का निवासी राजधानी नहीं आ सकता और उसके विकास का सपना उसकी आसपास की टूटी-उखड़ी सड़कों पर ही दम तोड़ देता है। यहां तक कि लखनऊ और इलाहाबाद के न्यायिक खंड-पीठ की बात करें तो उत्तर प्रदेश के हाशिए कर बसा एक सामन्य व्यक्ति आज भी अपने न्याय हेतु इतना लम्बा सफ़र करने में सक्षम नहीं है।
इसी परिवर्तन को हम बिहार से अलग हुए झारखंड की राजधानी रांची या मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर या उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड की राजधानी देहरादून या आंध्र प्रदेश से तेलंगाना के अलग होने के बाद आंध्र प्रदेश की नई बनती राजधानी अमरावती के परिप्रेक्ष्य में देख और समझ सकते हैं कि एक नया बनता शहर अपने साथ कितनी संभावनाएं लाता है। यह केवल उस शहर विशेष के लिए अवसंरचना का विकास, नए निवेश या संसाधनों की उपलब्धता से संबंधित नहीं है बल्कि इस वजह से शहर के परितः परिवर्तनों की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है जो आसपास के आम जन मानस को विकास हेतु प्रेरित करती है।
प्रशासनिक और सुरक्षा के बिन्दु तो बहस का विषय हो सकते हैं लेकिन हाशिए पर पड़े क्षेत्रों को मुख्य धारा में लाने हेतु इस पर विचार आवश्यक है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हमेशा ऐसे विषयों को दबाने का कार्य करती हैं और उनके पीछे वोट बैंक पर राजनीति की उनकी कलुषित मानसिकता छिपी होती है। बड़े राज्य एक जुट होकर संसद में एक बड़ा हिस्सा बनते हैं इसलिए कहा जाता है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उत्तर प्रदेश की मनोदशा पर निर्भर होती है, फिर वे इसे क्यों ही छोड़ना चाहेंगे, चाहे आप कितने ही कष्टों और परेशानियों को झेलते हुए जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासित इस लोकतंत्र में रहते हों।
उत्तर प्रदेश की एक समस्या यह भी है कि शिक्षा के अभाव ने अधिकतर जनता को चाटुकार और कुंठित बना दिया है इसलिए अपने विकास के संदर्भ में ऐसी किसी मांग पर वे विचार ही नहीं करना चाहते। संघर्ष से इस क्षेत्र ने तभी मुंह मोड़ लिए था जिस दिन अंग्रेज यह देश छोड़ कर चले गए थे। लेकिन यह भी एक स्थापित सत्य है कि यह क्षेत्र जब अपने अधिकारों के लिए खड़ा होता है तो ईश्वर भी मुकाबले हेतु सामने नहीं आते। जाने कब यह सोया ड्रैगन जागेगा और अपनी कोख में दबाए सोने रूपी शक्ति का प्रयोग कर अपने अधिकारों की मांग करेगा; लेकिन यह भी सत्य है कि कोई एक मुख्य मंत्री और कोई एक तंत्र उत्तर प्रदेश के भाग्य को नहीं बदल सकता; चाहे वह शिक्षा से संबंधित अवसंरचना विकास हो या कोई अन्य। अब व्यवस्था चाहे पूर्वांचल, बुंदेलखंड, अवध प्रदेश और पश्चिम प्रदेश की बने या कोई और, बिना नई व्यवस्था के हम बस एक भीड़ बने रह जायेंगे।
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