Friday, 9 July 2021

मधुरे! क्या मेरे उपवन में रास रंग बरसा पाओगी?

 


हिरनी  जैसी  आंखों  वाली

फूल सदृश मुस्कानों वाली।

हिमगिरि के शिखरों पर बैठी

शीतल सघन वितानों वाली।


क्या मेरे मन के पतझड़ पर सावन बनकर छा पाओगी?

मधुरे! क्या मेरे उपवन में रास रंग बरसा पाओगी?

मनमोहक  मृदु नयनों  वाली!

तुम जीवन का शुभ नर्तन हो।

अब तक नहीं पढ़ा है जिसको

उस  गीता का  तुम दर्शन हो।


क्या मेरे सूखे घट भरने तुम पनघट चलकर जा पाओगी?

मधुरे! क्या मेरे उपवन में रास रंग बरसा पाओगी?


मैं भटका हुआ पथिक मधूरे!

जाने  कब से  पथ भूला  हूं।

तुम  तक आने की खातिर मैं

जाने  कितनों  संग झूला हूं।


क्या मेरे भटके जीवन को तुम वापस पथपर ला पाओगी?

मधुरे! क्या मेरे उपवन में रास रंग बरसा पाओगी?


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*Image Source - unsplash.com

1 comment:

Anonymous said...

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