बस छोड़ दिए हैं पुराने रास्ते
और एक नया रास्ता गढ़ रहा हूं,
क्योंकि सड़ गये हैं सभी पुराने
दुर्गंध आती है उनसे,
साम्प्रदायिकता की बारिश ने
उजाड़ दिए हैं रास्ते के पत्थर
दरारें पड़ गयी हैं उनमें
युं कि चला भी नहीं जाता,
इसीलिए बनना पड़ रहा है
नया मांझी
काटना पड़ रहा है
जीवन-पत्थर
नव-निर्माण के लिए,
जिन पर चलकर
आने वाली पीढ़ियां
सुख भोग सकें,
और बना सकें एक बेहतर कल
अपने आने वालों के लिए।
जहां मनुष्य हों
मनुष्यता से लबरेज़
वसुधैव कुटुम्बकम् वाले
और हो जीवन
प्रेम पिपासु।।
***
-ऋषि
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