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तुमसे रोज मिलता हूं। छत के उसी कोने में, जहां से तुम दिखती थी मुझे। जब भी छत पर आता हूं, अनायास ही नजरें वहीं पहुंच जाती हैं। घण्टों खड़ा निहारता रहता हूं। कभी-कभी तुम प्रकट भी हो जाती हो-देवी सी, तब खुद को चिकोटी काट कर वास्तविकता में फौरन वापस लौटता हूं, क्योंकि तुम्हारी सुन्दरता स्वप्नलोक में चौगुनी हो जाती है जो मेरी आंखे सम्भाल नहीं पातीं।
तुम्हारे शरीर को किसी और का हुए सालों बीत गए, पर लगता है जैसे स्वयं को छज्जे पर ही रख गयी हो तुम, जिससे मैं तुम्हे निरन्तर निहार सकूं। वो धूप जो तुम्हारे रुप के सामने सजदे करती थी आज चुभने लगी है, बरसात भी नहीं हो रही, न ही अब आंधी तुम्हारा दुप्पटा और रूमाल पर लिखा हुआ संदेश मुझ तक लाती है। सब बदल गये हैं जैसे इन्हें भी किसी ने हमारे विलगन का संदेश सुना दिया हो।
जब भी तुम्हारे घर की दिशा से कोई आगन्तुक मुझ तक पहुंचता है तो तुम्हारा कुशल-क्षेम जानने के लिए हृदय अधीर हो उठता है, परन्तु अच्छे लड़के का तमगा, जो गांव ने न-जानें क्युं दे रखा है, मेरे होंठ सिल देता है। तब सोचता हूं कालिदास बन जाऊं और मैं भी एक मेघदूत लिखूं और भेज दूं बादलों को तुम्हारे द्वार, तुम्हारा हाल पूछने।
मैं बस जानना चाहता हूं कि तुम खुश तो हो ना उस भाग्यबली के साथ, जो अब तुम्हारे प्रेम का अनाधिकृत अधिकारी है और ये भी कि वो कंगन सुरक्षित तो हैं न ?..........
तुम्हारा...
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