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इक दिन देखा था उपवन में
घूम रही थी सुबह सवेरे
इक छाया मेरी अपनी सी
इक आकृति मेरे सपनों की,
सजल नयन जब पास गया तो
नहीं मिला कोई भी अपना
नही मिली वह आकृति भी
निकलकर जो झुरमुट से बासों के
खलिहानों में खत्म हो गयी,
सोच रहा था, समझ रहा था
सपने क्या सच में ऐसे होते हैं
यदि देर किया उन तक जाने में
तो खत्म हो जाएंगे,
अब लगा हूं दुगुनी गति से
पौधों को पानी देता हूं
हरदम उपवन में रहता हूं
आकृति देख दौड़ पड़ता हूं
छाया देख लिपट जाता हूं,
सपनों को जिंदा रखता हूँ
हर पल उनसे बातें करता हूं
उन्हें बताता हूं कठिनाई
और समझता हूं कुछ रास्ते
जिन से उन तक पहुंच सकूं मैं
रूप और आकार दे सुकूं,
सपने कब किसके होते हैं
जो चाहे उसके होते हैं
इसीलिए अब
जग जाता हूं सुबह सवेरे
और बाट जोहता हूँ मैं उनकी
पूरी निष्ठा और धैर्य से।
- ऋषि
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