Sunday, 28 April 2019

आधुनिक कलयुग


देखता हूँ आजकल 
Whatsapp पर
Facebook पर
Twitter पर,

चल रहीं है चर्चाएं
जीवन पर
प्यार पर
राजनीति पर,

गढ़े जा रहे है प्रतिमान
गालियों के
कविताओं के
कहानियों के,

औ ताज्जुब है कि
शोर नहीं होता,
चिल्लाता भी नहीं कोई
हाथापाई भी नदारद,

क्योंकि
लिखे जा रहे हैं शब्द,
उत्तर में भी
प्रत्युत्तर में भी,

बोलता नहीं यहां कोई,
बस लिख रहा है विचार
औ बन रहा है विवेकानन्द
आधुनिक कलयुग का,

औ हैं कुछ मुझ जैसे भी
जो बस देख रहे हैं,
औ समझ रहे हैं
परिवर्तन की दिशा
मूक, बधिर, अपंग,

क्योंकि चाहतें हैं,
सपनों को आकार देना,
जीना,
कीर्तिमान बनाना,

पर लगता है कि
खो गये हैं शब्दों के प्रतीक
देवता भी कर गये हैं कूच,

क्योंकि 
परिवर्तन बस शब्द बन गया है,
खो गया है इसका आकार,
स्वरूप, वास्तविकता,

अब बस शब्द हैं,
खो गये हैं मायने उनके।


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