आज वर्षों बाद बचपन की तरह सवेरा हुआ; वही पक्षी, वही कलरव, वही मंद सुगंधित हवा का हौले से स्पर्श करके भाग जाना। पेड़ों से झांकता हुआ सूरज किसी पुराने बिछड़े मित्र की तरह लग रहा था, जिससे मैनें अपनी भौतिक जरूरतों की पूर्ति हेतु किनारा कर लिया है। और हाँ नदी पर भी गया था मैं, अरे हाँ वही नदी जिसकी मछलियों को स्वजनों से अधिक स्नेह करता था मैं। जब तक उंगलियों मे फंलाकर आटे की गोलियां उन्हें खिला न दूँ, भूख नही मिटती थी मेरी। वो टूटी नाव, वो झीनी पतवार, वो फिसलन भरी मिट्टी की दरारें, वो गुरगुट की छलांग एक के बाद एक सारे मंजर आंखो के सामने ऐसे आ रहे थे जैसे किसी बड़े पर्दे पर चलचित्रों का प्रदर्शन हो रहा हो।
और हां वह गुरुद्वारे की मुंडेर याद है ना, जहां से तुम्हारे घर का दरवाजा दिखता था। मेरा उस मुंडेर पर बैठकर तुम्हारे दरवाजे की तरफ देखना और तुम्हारा इंतजार करना, मेरी जिंदगी के सबसे हसीन पलों में से थे और मेरी उस छवि-तृष्णा में तुम्हारा प्रकट होकर मुस्कुरा देना, मेरे उस आधे-अधूरे इंतजार को पूरा सा कर जाता था।
कोठी के पीछे के लीची के पेड़ से लीची चुराने से लेकर नदी के किनारे से कुमुदिनी उखाड़ने तक हर बार तुम्हारा स्पर्श हर प्रतिस्पर्धा को एक नया आयाम देता था। चंदन की छाल की खुरचना, पॉपुलर के पेड़ से धनुष-बाण बनाना, गोलियों को डिब्बे में भरकर रखना, शंखपुष्पी के पुष्प खोजना, कांटे वाले पौधे के पीले पत्तों से सीटी बजाना, धान के पुआल पर गुलाटी खाना, यह जीवन के कुछ अमूल्य क्षण हैं जिनमें तुम और सिर्फ तुम ही सहभागी रहे हो।
याद है एक बार मैंने दीदी की आंख में पॉपुलर की लकड़ी चुभो दी थी। पिताजी ने डॉक्टर बुलाया था, वही जो पास के अस्पताल में रहते थे "डॉक्टर नैनन"। पहले उन्होंने कहा कि आंख खराब हो गई, फिर उन्होंने दीदी को अपने हाथ की उंगली दिखाते हुए पूछा कि कितनी उंगलियां हैं और और दीदी ने सही सही बताया और बिना दवा दिए आंख भी ठीक हो गई। उस दिन मैं बहुत डरा हुआ था, लेकिन बाद में हम इस बात को याद करके बहुत हंसे कि कैसे दीदी हाथ की उंगलियों को बता रही थीं।
आज यह सब बहुत याद आ रहा है जबकि यह एहसास भी है कि तुम मुझसे दूर, बहुत दूर जा चुके हो। किसी और की दुनिया बन चुके हो। किसी ऐसे की जिंदगी जो शायद तुम्हें मुझसे अधिक चाहता है। क्योंकि जब मैं तुम्हें चाहता था, तब मुझे पता ही नहीं था कि चाहत क्या होती है। 'दूधिया', 'चुनमुन' और गुरुद्वारे के सामने के चबूतरे पर रगड़ कर बनाई गई 'सिप्पल' से शुरू हुई जिंदगी इतनी तेजी से आगे बढ़ेगी यह कभी नहीं सोचा था। एक रोज जब अकेले बैठकर पलट कर देखा और तुमसे मिलना चाहा तो उस डोर को ही टूटा पाया जो मेरे एहसासों, यादों और रिश्तों को तुम से जोड़ती थी।
बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि इसी का नाम जिंदगी है और मेरे पास भी इस झूठ या सच को मान लेने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है। किसी और जन्म में तुम से मिलने की अभिलाषा लिए हुए अभी भी मैं अपने अभीष्ट की तलाश में उतनी ही तेजी से आगे बढ़ रहा हूं जितनी तेजी से तुमसे दूर हुआ था।
'ऋषि'
(क्रमशः)
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