Friday, 28 February 2025

महाकुंभ बीत रहा है | RISHI DWIVEDI

महाकुंभ बीत रहा है । RISHI DWIVEDI
 

प्रयागराज रो रहा है, महाकुंभ का महाप्रांगण सुना पड़ा है। देवताओं द्वारा सजाया नगर उजड़ रहा है। गंगा का कृशकाय शरीर आलिंगन करने वाले श्रद्धालुओं के आचमन को विस्मृत कर रहा है। सब लौट रहे हैं तो महाकुंभ भी लौट रहा है और मैं इसका चश्मदीद बना गंगा के एक तीर पर खड़ा रुदन में डूबा इस दृश्य को आत्मसात कर रहा हूं। आज गंगा शिव की जटाएं छोड़ मेरी पलकों से प्रवाहित हो रही हैं। प्रतीत होता है महाकुंभ का अंतिम स्नान मेरे हिस्से आया है और मैं उसके आनंद में हूं। करुणा का आनंद ही संवेदना की घनिष्ठता का साकार रूप है और मैं इससे बचना नहीं चाहता। शिव का लास्य तांडव रुक गया है और तन्वंगी गंगा की धारा दुग्ध धवल रेती पर पुनः श्रांत, क्लांत और निश्चल विश्राम कर रही है।


144 वर्ष बाद लौटा तीर्थ आज विदा लेने को है, प्रयागराज की अंतिम परिक्रमा को विवश देवता, संत, श्रद्धालु, सब क्रंदन कर रहे हैं। अब ये उत्सव न सजेगा, ये उल्लास न उमड़ेगा और जब उमड़ेगा तो हम न होंगे। कुंभ होगा, अर्ध कुंभ होगा लेकिन हमारी चेतना में धंस चुका ये महाकुंभ फिर न आवेगा और जब लौटेगा तो हम प्रस्थान कर चुके होंगे। हमारी चेतना के अंश प्रकृति से विस्मृत हो चुके होंगे। तब कोई हमसा पुनः महाकुंभ के आगमन का उल्लास मानवेगा और प्रस्थान के रुदन में डूबा यहीं खड़ा होगा, जहां से मैं बीतते प्रयाग के आनंद को निहार रहा हूं और इस वेदना के साक्षात्कार में मालतीमाधवम् का पाठ कर रहा हूं-

उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा
कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी॥

एक नगर के बीतने में केवल नगर का बीतने नहीं है; सभ्यता का बीतना है, संस्कारों के प्रवाह का बीतना है, समग्र के संगम का बीतना है। भाग्यशाली रहा कि इस नगर के बसने में मैं भी गिलहरी बना; स्वयं को जल में डुबोया, रेती में लौटा और प्रांगण में शरीर झाड़ उन्मत हुआ कि मैं न होता तो नगर ही न बसता, सौंदर्य न उमड़ता, लास्य न उतरता। हम मनुष्यों में अहंकार ही तो पारिभाषिक गुण है तो मुझमें भी रहा, लेकिन आज इस नगर को उजड़ते देख अंतस थर्रा रहा है। इस विचार के उर में आलोकित होते ही मैं शून्य हुआ जाता हूं कि अब यह उत्सव मेरे समक्ष न सजेगा, यह उल्लास मैं न मना सकूंगा। शिव का लास्य तांडव न देख सकूंगा, नागाओं की जटाओं का महाकुंभिक प्रपंच न दिखेगा, गंगा पुनः यूं न हर्षित होगी; कम से कम मेरे रहते तो नहीं।

सुमित्रानंदन पंत इसी गंगा की जलधारा में सैर कर उमड़ पड़े थे -

इस धारा-सा ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन का उद्गम, शाश्वत है गति, शाश्वत संगम!
शाश्वत नभ का नीला विकास, शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु लहरों का विलास !
हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आरपार,
शाश्वत जीवन-नौका-विहार!

और मैं भी इसी द्वंद्व में उलझा अपने अस्तित्व की परिधि को निर्धारित कर रहा हूं। सोच रहा हूं कि अमृत को छलकाने का प्रपंच क्यों रचा गया होगा? जबकि परमपिता तो अमृत को त्रिशंकु की भांति मार्ग में ही रोक सकते थे। शायद वे भी चाहते थे कि स्वयं में उलझा मनुष्य एक दिन सब छोड़ दौड़ पड़े एक नदी के तीरे और एक दूसरे से हिल-मिल अपने होने का वास्तविक अर्थ समझ सके; और इसीलिए उन्होंने यहां केवल मनुष्यों को न मिलाया बल्कि नदियां भी गले मिलीं; दुःख-प्रेम साझा किया और निकल पड़ीं अभीष्ट की ओर। इसीलिए सजा था ये नगर, मानवता के मिलन का प्रस्थान बिंदु बनने; जहां इस मिलन के साक्षी देवता भी बने और संत भी। और आज जब यह आनंद पूरा होने को है तो सब ओर विश्रृंखलता है, करुणा है और दूर कहीं पुनः मिलने, बसने, सजने, उलसने, बिखरने की उम्मीद भी दुबकी हुई है।

आज महाकुंभ बीत रहा है और यह पुनः 144 वर्ष बाद आवेगा; तब मैं नहीं रहूंगा, मेरे अस्तित्व के सारे चिन्ह भी मिट चुके होंगे, लेकिन मेरे समय! तुम यहीं मेरी जगह खड़े रहना और स्वागत करना मानवता के इस सबसे बड़े संगम का और फिर सजाना इस अद्भुत नगरी को जहां देवता सेवा करें, संत समागम करें, श्रद्धालु आचमन करें और गंगा की अविरल धारा सदैव हमें पावन करती रहे।

मिलते है…𑀋𑀱𑀺(Rishi)

3 comments:

Anonymous said...

❤❤❤

भvyaa said...

❤❤❤

Anonymous said...

अद्भुत Sir Ji🧡🙏