Thursday, 24 November 2022

तो क्या हो अगर

 


तो क्या हो के तुम एक दुनिया बनो
और मैं बस पहाड़ों के उसपार बहते
हजारों लहरादर झरनों की तस्वीर में
रंग भरता हुआ
पेड़ पर घोंसलों को बनाता हुआ
और उनमें जीवन बसता हुआ
अपने टूटे खयालों में उलझा हुआ
दूर तक बहते दरिया में बहता हुआ
तुमसे आकर मिलूं;

तो क्या हो अगर तुमसे मिलते हुए
तुमको तोडूं, बनाऊं, बिगाड़ूं मगर
कोई हासिल न हो
याकि मिलकर तुम्हें, सोचता ही रहूं
और लड़ता रहूं खुद-ख़याली से पर
कभी जाहिर न हो;

तो क्या हो अगर जिस्म मिलने से भी
हममें रिश्तों की बुनियाद पैदा न हो
इश्क पैदा न हो, प्यार पैदा न हो
जैसे दरिया बने और पानी न हो
जैसे जंगल बने जिसमें रस्ते तो हों
पर मुसाफ़िर नहीं
जैसे आंगन बने जिसमें तुलसी तो हो
मगर सूखी हुई
जैसे मंदिर बने और ईश्वर न हों;

तो क्या हो अगर कोई तुमको मिले
साथ चलने का वादा करते हुए
कुछ उम्मीदों भरा एक रिश्ता बने
पर तुम्हारी खुशी
और ख्वाहिश की दुनिया उजड़ने लगे
एक समझौता हो, फिर बिखरने लगे
क्या यही कोशिशें तुमको जिंदा रखेंगी;

मुझसे बिछड़ कर भटकते हुए
किसी अनजान का हाथ थामे हुए
जिंदगी की गली से गुजरते हुए
खुद से पूछा कभी कितने खुश रह सकोगे?


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