प्रिय मृणालिनी,
तुम्हारे बारे में बहुत सुना था मैंने, मेरी छोटी दीदी अक्सर तुम्हारी तारीफें किया करती थीं। साथ ही यह भी बताया करती थीं कि तुम मुझे पसंद करती हो और तुम मुझे ‘लड्डू’ कहकर संदर्भित करती हो। इतना कुछ सुनने और जानने के बाद मेरे अंदर एक प्रेम मिश्रित भावना तुम्हारे लिए उपजने लगी थी। मेरी ख्वाहिश होने लगी थी कि तुमसे मिलूं, तुमको जानूं और अपने बारे में भी बताऊं, जिससे हम एक सुंदर संबंध निर्मित कर पाएं।
मुझे आज भी वह दिन याद है जब तुम पहली बार मुझसे मिलने आई थी। सर्दियां हल्की-हल्की शुरू हो गई थीं। मेरे जन्मदिन के एक दिन बाद 22 अक्टूबर को तुम पेपर में लिपटा हुआ एक गिफ्ट लेकर आई थी। नारंगी साड़ी में लिपटी हुई एक सुंदर मूर्ति लग रही थी तुम, जिसे एक महान कलाकार द्वारा व्यवस्थित समय लेकर तराशा गया हो और उस पर तुम्हारा खुद को सजाना सोने पर सुहागा जैसा था।
तुम्हारा आना मेरे अरमानों के पूरे होने जैसा था। तुमसे पहली बार का मिलन मेरे लिए थोड़ा अजीब था। मैं लड़कियों से बात करने में ज्यादा सहज नहीं हूं, इसलिए जैसे ही तुम मेरे पास आई मेरा पूरा बदन कांपने लगा और मेरा चेहरा डर और शर्म की लालिमा से भर गया। अगर तुमने ध्यान दिया हो तो तुमने भी ये परिस्थितियां महसूस की होंगी। मैंने अपनी नजरें जमीन में गड़ा रखी थीं, क्योंकि उन्हें तुमसे मिला पाने का सामर्थ्य मुझ में नहीं था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं? क्या कहूं? संभवतः प्रेम के प्रथम साक्षात्कार में प्रेमियों के संग ऐसा होता हो। तभी एक मीठी सी आवाज मेरे जिस्म में सिहरन सी उतर गई “जन्मदिन मुबारक हो मानवेंद्र”। ऐसा लगा जैसे कुछ खोया हुआ था और अभी मिलकर मुझे पूरा कर गया। मैं प्रसन्नता के सातवें आसमान पर था। वह मधुर ध्वनि मेरे शरीर के सारे तारों को स्पंदित कर चुकी थी।
और फिर सिलसिला शुरू हुआ हमारे मिलने का। जब भी मैं छुट्टियों में घर आता तो वापस जाने से ज्यादा तैयारियां आने के लिए करता। सुबह किस टी-शर्ट के साथ कौन सी घड़ी, जींस व जूते पहन कर छत पर जाना है, यह मेरी डायरी के पन्नों में कैद रहता था। तुम्हारा छत पर आना, मुझे देख कर मुस्कुराना और आंखें बड़ी करके घूरना; मुझे हर दिन एक नया आनंद, एक नई जिंदगी देता था। दिन, महीने, साल बीतते गए लेकिन हमारे बीच प्रेम, एक दूसरे से मिलने की चाहत, तुम्हारा मुस्कुराना, छत पर दौड़ना और आंखें बड़ी करके घूरना बंद नहीं हुआ।
वो होली तो याद ही होगी तुम्हें, जब शाम को मैंने तुमसे पूछा था “अकेले-अकेले होली खेल ली, मृणालिनी!” और पहली बार तुमने मेरे गालों पर गुलाल मलते हुए कहा था “तुम्हें रंगे बिन कहां पूरी होगी मेरी होली, मानवेंद्र!” और बाहों में भरते हुए मेरी रूह को छू गई थी तुम। तुम्हारा वह स्पर्श मेरे जीवन में एक हस्ताक्षर की तरह सम्मिलित हो गया था। मैंने उस दिन खुद से भी कहा था कि तुम अब मृणालिनी के मानवेंद्र हो और यही तुम्हारी पहचान है।
पता है तब से आज तक होली नहीं मना पाया मैं। किसी का छूना भी अब अच्छा नहीं लगता। कोई कहता भी नहीं “तुम्हें रंगे बिन कहां पूरी होगी मेरी होली, मानवेंद्र!”। तुम्हारे प्रेम और जीवन पर किसी और का अधिकार हो जाने के बाद मैं प्रत्येक बीत रहे फगुए में गुलाल देखकर सोचने लगता हूं कि क्या कभी मैं भी इन रंगों को किसी और के माध्यम से स्वयं तक पहुंचा पाऊंगा? क्या मैं कभी फिर इन्हें उसी तरह स्वीकार कर पाऊंगा, जैसे तुम्हारी छुअन के बाद अपना लिया था?
तुम्हारा गुलाल नहीं छूटा है मेरे गालों से, मृणालिनी! और ना ही तुम्हारा स्पर्श। मेरी रूह से भी जैसे चिपक सी गई हो तुम, और ये सब शायद इस जन्म में छूटेगा भी नहीं।
विदा शुभे, खुश रहना!
तुम्हारा मनु...
copyright©2020
No comments:
Post a Comment