Saturday, 11 April 2020

तुम्हारा पत्र आया है।



यादों को भुलाने के प्रयास में अभी बहुत दिन नहीं बीता, रोज घर से बाहर खलिहान में लगे सरकारी नल पर बैठकर तुम्हारे आने-जाने के रास्ते को तकता रहता हूं। हां यह अलग बात है कि जब इसी रास्ते से तुम्हारी डोली जा रही थी तो मैं मम्मी के कमरे की खिड़की से झांक रहा था, पता नहीं क्युं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि दहलीज लांघ कर तुम्हारी जुदाई का आलिंगन कर पाऊं।

पता है उस दिन यह खलिहान और सरकारी नल मुझे जोर-जोर से पुकार रहे थे और मैं अपने तकिए से कान और मुंह को ढके अपने रोने की आवाज से इनकी आवाजों को दबाने की कोशिश कर रहा था। जाहिर है कि मैं ही हारा होऊंगा, लेकिन फिर भी यह बात मैंने स्वयं को नहीं बताई और हमारे प्रेम की अंतिम बारात गुजर जाने के बाद एक छद्म विजय का लिबास ओढ़े, कुंठित गर्व के साथ सीना चौड़ा कर, सिर को उठाए मैं पुनः इसी खलिहान में नल के चबूतरे पर आकर बैठ गया और पास में पड़ी टूटी ईंट को चबूतरे के पत्थर पर घिसकर सिप्पल बनाने लगा।

तुम्हारे मधुर्यामिनी की रात्रि ठीक वैसे ही गुजरी जैसी स्वतंत्रता संग्राम में रत सिपाहियों की पाकिस्तान बनने के एक दिन पहले की रात्रि गुजरी होगी। हमारे प्रेम के प्रदेश से उस दिन तुम अलग हो रही थी और मैं अपनी रेतीली महत्वाकांक्षाओं से बने भवन को नोच-नोच कर गिरा रहा था। मैं जीता भी था पर हार गया था। जीत युं की अब संपूर्ण प्रेम पर मेरा अधिकार था। अब अपने हृदय में मैं जब चाहता तुम्हें हंसाता, जब चाहता रुलाता, जब चाहता आलिंगन करता, जब चाहता तुम्हारे पास से उठकर चला जाता।

मैं न खुश था, ना दुखी था, मैं पिघल रहा था। तुम मुझ में से रिस रही थी और मुझसे दूर कहीं ठंडक पा किसी और में सिमट रही थी, जैसे मोमबत्ती अपनी ज्योति के पास पिघलती है और नीचे खिसक किसी अन्य भाग में समाहित हो जाती है।

उसके बाद कभी सावन, सावन नहीं लगा! कभी होली, होली नहीं लगी! कभी दिवाली, दिवाली नहीं लगी! ऐसा लगता है कि पिघल कर दूर होते वक्त सब तुम साथ लिए गई थी; किसी और में मिलाने के लिए। तुम ही तो थी मेरा पर्व, मेरे त्यौहार, मेरी खुशियां, मेरी आकांक्षाएं, मेरी उत्तुंगता। अब जब तुम ही चली गई तो उनका जाना तो स्वाभाविक ही है।

तुम्हारी यादों के कसैले हो चुके स्वाद में खोया हुआ आज फिर मैं खलिहान में उसी सरकारी नल के चबूतरे पर बैठा हुआ था कि डाकिया चाचा आकर रुके। हां वही शुक्ला चाचा, जो मेरे दिल्ली आने के बाद चिट्टियां भेजने पर तुम्हें पहुंचाने जाते थे। इकलौते वही तो हमारे प्रेम के जीवित गवाह थे। उन्होंने मुझे लगभग डांटते हुए अपने पास बुलाया और एक खत दिया; कहा कि एकांत में पढ़ना। मेरे माथे पर बल पड़ गया, क्योंकि तुम्हारे जाने के बाद कोई संबंध ऐसा नहीं रहा जो खत जैसे जीवित माध्यम से मुझसे संवाद करना चाहे। उत्सुकतावश मैंने लिफाफा फाड़ दिया और तुम्हारा नाम देखकर एकांत में पढ़ने वाली बात दिमाग से बिसर गई। मैं चिल्लाते हुए उसी पुराने शिव मंदिर की तरफ भागा जहां कभी पैदा हो रही चेतना को समेट कर तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बनाने के लिए आवेदन दिया था। और जानती हो कि मैं क्या चिल्ला रहा था यही कि-
तुम्हारा पत्र आया है, तुम्हारा पत्र आया है।

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ऋषि
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