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कोई लाया था एक टुकड़ा
गोंडवाना लैंड से तोड़कर
चप्पू चलाता हुआ
अंगारा लैंड में धंसा देने के लिए,
और फिर बोये थे सीमाओं पर कुछ पहाड़
हिंदूकुश और हिमालय सरीखे,
और उगाई थीं उनमें कुछ चोटियां
एवरेस्ट, कंचनजंगा और गाडविन-ऑस्टिन जैसी,
और उठाया था उन्हें विश्व की सर्वोत्तम ऊंचाइयों तक
क्योंकि वह बनाना चाहता था एक अजेय दुर्ग
उगाना चाहता था उनमें कुछ परंपराएं
और बनाना चाहता था उस टुकड़े को
संस्कृतियों का पालना।
आश्चर्य है कि वह सफल भी रहा
उसने बनाया एक अखंड भारत
और उसमें उगाई विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं
परंपराएं, कुछ अद्भुत संस्कृति भी।
कुछ रेखाएं भी खींची उसने इस टुकड़े पर
और उन में बहाया विश्व का सबसे पवित्र जल
और बना दिया उन्हें सिंधु, गंगा और सरस्वती।
व्यापार को बनाया उन्नत
और फिर अखंड भारत को विश्व गुरु
सोने की चिड़िया भी,
और ले गया अखंड भारत की जीडीपी
सर्वश्रेष्ठ पायदानों पर,
उसके हजारों-लाखों सालों बाद
कुछ क्रूर और आततायी लोग आए यहां पर
जिनसे हमारी समृद्धि देखी नहीं गई
और उन्होंने शुरू किया
लूटना, मारना और विनाश करना।
अखंड भारत के निर्माता उस पुरुष ने
नहीं सिखाई थी हमें क्रूरता
सिखाया था शांति से जीना और प्यार करना
किसी को दास बनाना नहीं सिखाया था हमको
सिखाया था अतिथि को भी भगवान का दर्जा देना।
इसीलिए हम कमजोर पड़े
और हमारा विनाश हुआ,
हजारों सालों के संघर्षों के बाद
जब हम हुए इस लायक कि बना सकें
फिर से अपनी सत्ता
जिंदा कर सकें फिर से अखंड भारत को
तो अखंड भारत को काट दिया कई टुकड़ों में
और फेंक दिया इधर उधर
तोड़ दिया मस्तक भी, भुजाएं भी
और क्षत-विक्षत कर दिया पूरा शरीर
दूर कर दिया हमें अपनों से अपने-अपनों से,
खींच दीं लकीरें हमारे बीच
और उसे एक नाम भी दे दिया रेडक्लिफ लाइन,
फिर हम अपनों के ही विरोधी बन गए
युद्ध भी लड़े
लेकिन कभी साथ नहीं बैठे,
छोटे भाई ने पैदा कर लिए कुछ फ़िदायीन
उसे लगा कि हम हैं उसके शत्रु
हमने छीने हैं उसके अधिकार और संपन्नता
भूल गया वह अपने वास्तविक शत्रुओं को,
फिर बीत गए 75 साल
हम कभी नहीं मिल पाए अपने बिछड़े भाइयों से,
इतने सालों बाद दोनों सरकारें साथ आईं
एक कॉरिडोर खोला
नाम दिया करतारपुर कॉरिडोर
और उसके बहाने मिलाया कुछ बिछड़ों को
मिलते ही प्रेम छातियों को बिंधता हुआ आर-पार हो गया
और जिंदा हो गया फिर से अखंड भारत का सपना
ऐसा लगा जैसे मानों सीमाएं थी ही नहीं
या फिर जैसे हमने सोचा ही ना हो कभी मिलने के लिए
एक अनुभूति जो सबसे बड़ी थी
जो ईश्वरीय अनुभूति से ज्यादा गहरी थी।
और फिर हम मिलने लगे
चंद दूरियों के लिए, केवल चंद लोग
चेहरे पर मुहरें लगवा कर।
सोचता हूं मैं कभी-कभी
क्या नहीं बन पाएंगे
हिंदूकुश और हिमालय के उत्थान
भारत की अंतिम मेंढ़े,
क्या नहीं बनेंगे
और कॉरिडोर करतारपुर सरीखे,
क्या नहीं कह पाएंगे हम कभी
अपने बिछड़े भाइयों को सगा-संबंधी,
क्या बस परमाणु शस्त्रों के आधार पर होगी
हमारी बातचीत,
क्या अधूरा रह जाएगा
अखंड-भारत को विश्व गुरु बनाने का सपना,
क्योंकि जब हम साथ थे तभी सर्वोत्तम थे,
क्योंकि साथ होता है शक्ति का परिचायक
और अकेलापन सदैव कमजोरी का,
शायद समय आ गया है जब हम यह सोचें
और हो एक साथ जीत लें फिर से सर्वस्व,
और फिर से बेचें काली मिर्च
सोने के भाव में।
और बना दे अखंड भारत को
विश्व गुरु।
- ऋषि द्विवेदी
copyright©2019
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