प्रिय,
आज सुबह तुम्हें फिर देखा था | चेहरे पर खामोशी, निगाहों में बेचैनी, पैरों में तूफान लिए, कहीं भागी जा रही थी तुम | सोचा कि रोक कर पूछूं "कहां जा रही हो, क्यों परेशान हो, बताओ शायद कुछ मदद ही कर पाऊं |" लेकिन फिर डर गया कि कहीं कल की तरह फिर डांटने न लगो कि "तुमसे क्या मतलब है मैं चाहे जिउँ या मरूं |" तुम तो गुस्सा दिखा कर चली जाती हो | लेकिन फिर मेरी रातों का सुकून छिन जाता है, मेरी आंखों से नींद दुश्मनी सी कर लेती है और बिस्तर तो जैसे काटने को दौड़ता है | हर दिन अकेले कमरे में बैठकर सोचता रहता हूं कि आखिर ये कैसा रब्त है हमारे-तुम्हारे बीच जो मुझे तुम्हारे बारे में सोचने के लिए मजबूर कर देता है | हर रोज उस गली से गुजरते हुए तुम्हारी बालकनी की तरफ देखता हूं और तुम्हें ना पाकर बेचैन हो उठता हूं | मन में अजीब प्रश्न उठने लगते हैं, कि तुम स्वस्थ तो हो| शायद इसी लगाव को प्यार कहते हैं| मैं तो कभी इस रिश्ते को परिभाषित नहीं कर पाऊंगा और ना ही कोई नाम दे पाऊंगा | क्योंकि इसमें तो सिर्फ मैं हूं | तुमने तो जानना भी नहीं चाहा कि यह रिश्ता क्या है ? लेकिन कभी जीवन ने और ईश्वर ने इतना समय और साहस दिया कि तुमसे रूबरू होकर तुम्हारा खुद से परिचय करा पाऊँ, तो जरूर बताऊंगा कि, तुम्हें खुद में जीते हुए मैंने एक अरसा गुजार दिया है और 'अब तुम्हारी बारी' है |
तुम्हारा "Mr R."
Copyright : Rishi
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