Wednesday, 20 June 2018

पितृ-दिवस पर विशेष


भारत में अपने माता-पिता और गुरु को सम्मान देने और उन्हें भगवान समान समझने के संस्कार एवं नैतिक दायित्व चिरकाल से चलते आ रहे हैं। भारतीय संस्कृति में ‘पितृ-दिवस’ के मायने ही अलग हैं। यहां इस दिवस का मुख्य उद्देश्य अपने पिता द्वारा उनके पालन-पोषण के दौरान किए गए असीम त्याग और उठाए गए अनंत कष्टों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना अथवा स्वर्गीय पिताश्री की स्मृतियों को संजोना है ताकि हम एक श्रेष्ठ एवं आदर्श संतान के नैतिक दायित्वों का भलीभांति पालन कर सकें। इस तरह के सुसंकार भारतीय संस्कृति में कूट-कूटकर भरे हुए हैं। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करने, उनके दिखाए मार्ग पर चलने, वृद्धावस्था में उनकी भरपूर सेवा करने आदि हर नैतिक दायित्वों का पाठ बचपन से ही पढ़ाया जाता है। भारतीय संस्कृति और पौराणिक साहित्य में माता-पिता और गुरु को जो सर्वोच्च सम्मान और स्थान दिया गया है, शायद उतना कहीं और किसी सभ्यता व संस्कृति में देखने को नहीं मिलेगा। हिन्दी साहित्य में ‘पिता’ को ‘जनक’, ‘तात’, ‘पितृ’, ‘बाप’, ‘प्रसवी’, ‘पितु’, ‘पालक’, ‘बप्पा’ आदि अनेक पर्यायवाची नामों से जाना जाता है। पौराणिक साहित्य में श्रवण कुमार, अखण्ड ब्रह्चारी भीष्म, मर्यादा पुरुषोत्तम राम आदि अनेक आदर्श चरित्र प्रचुर मात्रा में मिलेंगे, जो एक पिता के प्रति पुत्र के अथाह लगाव एवं समर्पण को सहज बयां करते हैं।

Tuesday, 5 June 2018

प्यार नहीं अब दुनिया में।


आज सुना है चलते चलते प्यार नहीं अब दुनिया में,
किसी की मीठी बातों पर एतबार नहीं अब दुनिया में।

गले लगाया इश्क किया और तन की प्यास बुझाली बस,
सपनों जैसा सजा सजीला श्रृंगार नहीं अब दुनिया में।

याद भी आई उनकी तो, बस मतलब का ही जिक्र किया,
बेमतलब मुलाकातों के आसार नहीं अब दुनिया में।

जन्मदायिनी माता हो या पोषक पिता की चर्चा हो,
खून से सींचे रिश्तों का भी सम्मान नहीं अब दुनिया में।

रात में जुगनू पूछ रहे थे कहो तो मैं भी साथ चलूं,
रिश्ते भी अब श्रद्धा के हकदार नहीं जिस दुनिया में।

ऋषि

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