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जब मैंने पढ़ा कि केदारनाथ सिंह ने लिखा है “‘जाना’ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।” तो मैं स्वयं को इस पर आपत्ति करने से नहीं रोक पाया। मैं मानता हूं ‘जाना’ नहीं बल्कि ‘बीतना’ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया होनी चाहिए। जब कुछ बीत जाता है तो उसका अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए आंखों से ओझल हो जाता है; पुनरावृत्ति की सारी संभावनाएं मर जाती हैं; कोई भी शक्ति उसे वापस नहीं ला सकती, इसे एक रासायनिक अभिक्रिया की तरह समझा जा सकता है जबकि ‘जाना’ में भौतिक अभिक्रिया के गुण दिखाई पड़ते हैं–जाना, में आना अंतर्निहित है; यह भले ही व्याकरणिक विधानों पर खरा न उतरे, पर अनुभव कई बार सिद्धांतों से अधिक महत्व रखते हैं और प्रासंगिकता भी। साथ ही संवेदनाएं और प्रेम किसी समीकरण के मोहताज भी तो नहीं हैं, वे अपनी अंतर्यात्रा में अनेक सिद्धांत और व्याकरण गढ़ते और मिटाते हैं।